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हां, यदि ऋषभदेव भगवान के युग में इतने अक्षरों के परिमाण को पद कहा जाए तो कोई अनुचित न होगा, किन्तु भगवान महावीर के युग में यह उपर्युक्त मान्यता कदापि संगत नहीं बैठती है। आदिनाथ भगवान के युग में मनुष्यों की जो अवगहना, आयु, बौद्धि कशक्ति, और वज्रऋषभनाराच संहनन थी, यह सब काल के प्रभाव से क्षीण होते गए। महावीर के युग तक अधिक न्यूनता आ गई। अत: सिद्ध हुआ कि महावीर स्वामी के युग में जो अङ्गों में पद परिमाण आया है, वह उक्त विधि के अनुसार ही घटित हो सकता है, दिगम्बर आम्नाय के अनुसार नहीं। काल के प्रभाव से पद की परिभाषा बदलती रहती है, सदाकाल पद की परिभाषा एक जैसी नहीं रहती, क्योंकि आयु, बौद्धिक शक्ति, तथा संहननके अनुसार ही पद की परिभाषा बनती रहती है। पद गणना सब तीर्थंकरों के एक जैसी रहती है, किन्तु 'उसकी परिभाषा बदलती रहती है।
बारह अङ्ग सूत्रों की पद संख्या सत्रों के नाम श्वेताम्बर
दिगम्बर आचाराङ्ग १८०००
१८००० सुयगडाङ्ग
३६००० ठाणाङ्ग ७२०००
४२००० समवायाङ्ग १४४०००
१६४००० भगवती २,८८०००
२२८००० ज्ञाताधर्मकथाङ्ग ५,७६०००
५५६००० उपासकदशाङ्ग ११,५२०००
११७००० अन्तगडदशाङ्ग २३,०४०००
२३२८००० अनुत्तरोपपातिक ४६०८०००
६२४४००० प्रश्नव्याकरण ६२१६०००
६३१६००० विपाकसत्र १८४३२०००
१८४००००० पूर्वस्थ पद संख्या ८३२६८०००५
१०८६८५६००५ मति और श्रुतज्ञान में परस्पर साधम्ये
पांच ज्ञान में सर्वप्रथम मतिज्ञान, तत्पश्चात् श्रुतज्ञान. यह क्रम सूत्रकार ने क्यों अपनाया है ? श्रुतज्ञान को पहले प्रयुक्त क्यों नहीं किया ? जबकि श्रुतज्ञान स्व-पर कल्याण में परम सहायक है ।
सूत्रकार ने पांच ज्ञान का क्रम जो रखा है, वह स्वाभाविक ही है, इसके पीछे अनेक रहस्य छिपे हुए हैं । नन्दीसूत्र में 'सुयं मइपुव्वं' ऐसा उल्लेख किया हुआ है, इसका अर्थ-श्रुत मतिपूर्वक होता है, न कि श्रतपूर्वक मति होती है। उमास्वाति जी ने भी श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक ही कहा है। इन उद्धरणों से यह स्वयं सिद्ध है कि मतिज्ञान जो पहले प्रयुक्त किया है, वह निःसन्देह उचित ही है। वैसे तो मतिज्ञान और श्रतज्ञान दोनों का अस्तित्व भिन्न ही है, फिर भी उनमें जो साम्य है, उसका उल्लेख भाष्यकृत एवं
१- तत्त्वार्थ सूत्र,०१, सू. २० ।
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