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सत्ता जन्तु य माणी य माई जोगी य संकुडो
असकुडो य-खेत्तएणू. अन्तरप्पा तहेव य ॥२॥ आत्मा के विषय में पूर्ण विवरण इस पूर्व में गभित है।
म. कर्मप्रवादपूर्व-इसमें आठ मूल प्रकृति, शेष उत्तर प्रकृतियों का बन्ध, उदय उदीरणा, क्षेत्रविपाकी, जीवविपाकी, पुद्गलविपाकी, ध्रुवोदय अध्रुवोदय, ध्रुवबन्धिनी, अध्रुवबन्धिनी, उद्वर्तन अपवर्तन, संक्रमण, निकाचित निधत्त, प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध अनुभागबन्ध प्रदेशबन्ध अबाधाकाल किस गुणस्थान में कितनी प्रकृतियों का बन्ध होता है ? कितनी उदय रहती हैं ? कितनी सत्ता में रहती हैं ? इस प्रकार कर्मों के असंख्य भेदों सहित वर्णन करने वाला पूर्व है। जीव किस प्रकार कर्म करता है ? कर्मबन्ध के हेतु कौन से हैं ? उनको क्षय कैसे किया जा सकता है ? इत्यादि ।
आजकल भी ६ कर्मग्रन्थ, पञ्चसंग्रह कम्मपयडी, प्रज्ञापना सत्र का २३ व २४ व २५ वां २६ वां पद, विशेषावश्यकभाष्य, गोम्मटसार का कर्मकाण्ड, इत्यादि अनेक ग्रन्थों व शास्त्रों में विखरा हुआ . है, इस विषय का मूलस्रोतकर्मप्रवादपूर्व ही है।
६. प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व-प्रत्याख्यान-त्याग को कहते हैं, गृहस्थ का धर्म क्या है ? साधु धर्म क्या है ? श्रावक किसी भी हेय-त्याज्य को ४६ तरीके से त्याग कर सकता है, साधु उसी को ६ कोटि से त्याग करता है। जिसका त्याग करने से मूलगुण की वृद्धि हो वह मूलगुणपच्चक्खाण कहलाता है और जिसके त्याग करने से उत्तरगुण की वृद्धि हो वह उत्तरगुण पच्चक्खाण कहलाता है। भगवती सूत्र के ७ वें शतक में, दशवकालिक में, उपासकदशाङ्ग में, दशाश्रुतस्कन्ध की छठी सातवीं दशा में, ठाणाङ्ग सूत्र के दसवें स्थान में जो पच्चक्खाण का वर्णन आता है वह सब प्रत्याख्यान प्रवाद पूर्व के छोटे से पीयूष कुण्ड की तरह है। अनागत, अतिक्रान्त, कोटिसहित, नियंत्रित, सागार-अनागार पच्चक्खाण, परिमाणकृत, निरवशेष, संकेत पच्चक्खाण, अद्धापच्चक्खाण ये साधु के उत्तरगुण पंच्चक्खाण हैं।
१०. विद्यानुप्रवाद-सात सौ अल्पविद्याओं का, रोहिणी आदि ५०० महाविद्याओं का और अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न लक्षण, व्यंजन और चिह्न इन आठ महानिमित्तों का इसमें विस्तृत वर्णन है।
११. श्रवन्ध्यपूर्व-अपर नाम कल्याणवाद दिगम्बर परम्परा में प्रसिद्ध है। शुभ कर्मों के तथा अशुभ कर्मों के फलों का वर्णन इस पूर्व में मिलता है। जो भी कोई जीव शुभ कर्म करता है वह निष्फल नहीं जाता, उत्तम देव बनता है, उत्तम मानव बनता है, तीर्थंकर, वलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती बनता है । यह शुभ कर्मों का फल है।
१२. प्राणायुपूर्व-शरीरचिकित्सा आदि अष्टाङ्ग आयुर्वेदिक भूतिकर्म, जांगुली (विषविद्या) प्राणायाम के भेद प्रभेदों का, प्राणियों के आयु को जानने का इसमें तरीका बतलाया है। यदि इस पूर्व में पूर्वधर उपयोग लगाए तो उसे अपनी तथा पर की भूत, भविष्यत, वर्तमान तीनों भवों की आयू का ज्ञान सहज ही हो जाता है । धर्मघोषाचार्य ने, धर्मरुचि अनगार का जीव कहां उत्पन्न हुआ है, यह इसी पूर्व से ज्ञात किया था।
१३. क्रियाविशालपूर्व-क्रिया के दो अर्थ होते हैं—संयम-तप की आराधना करना, उसे भी क्रिया