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१. जीव - द्रव्यप्राण १० होते हैं, उनसे जो जीया, जीवित है। और जीवितर हेगा निश्चय नय से अनन्तज्ञान अनन्तदर्शन अनन्तसुख और अनन्तशक्ति, इन प्राणों से जीने वाले सिद्ध भगवन्त ही हैं, शेष संसारी जीव, दस प्राणों में जितने प्राण जिस में पाए जाते हैं, उनसे जीने वाले को जीव कहते हैं । २. कर्त्ता -- शुभ अशुभ कार्य करता है इसलिए उसे कर्त्ता भी कहते हैं ।
३. वक्ता - सत्य-असत्य, योग्य अयोग्य वचन बोलता है अतः वह वक्ता भी है।
४. प्राणी इसमें दस प्राण पाए जाते हैं इसलिए प्राणी कहलाता है।
५. भोक्ता - चार गति में पुण्य-पाप का फल भोगता है अतः वह भोक्ता भी है ।
६. पोग्गल नाना प्रकार के शरीरों के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण करता है, पूर्ण करता है, उन्हें गाता है इसलिए उसे पुद्गल भी कहते हैं ।
७. वेद -- सुख दुःख के वेदन करने से या जानने से इसे वेद भी कहते हैं ।
८. विष्णु — प्राप्त हुए शरीर को व्याप्त करने से उसे विष्णु भी कहते हैं ।
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६. स्वयंभू - स्वतः ही आत्मा का अस्तित्व है, परत: नहीं । #
१०. शरीरी संसार अवस्था में सूक्ष्म या स्थूल शरीर को धारण करने से इसे शरीरी या देही कहा जाता है।
११. मानव-मनु ज्ञान को कहते हैं, ज्ञान सहित जन्मे हुए को मानव अथवा मा निषेधक है नव का अर्थ होता है नवीन अर्थात् जो नवीन नहीं अनादि है उसे मानव कहते हैं।
१२. सक्ता - जो परिग्रह में आसक्त रहता है अथवा जो पहले था, अब है, अनागत में रहेगा उसे सत्त्व भी कहते हैं ।
१३. जन्तु --- आत्मा कर्मों के योग से चार गति में उत्पन्न होता रहता है, इसलिए उसे जन्तु
कहा है।
४१. मानी — इसमें मान कषाय पाई जाती है अथवा यह स्वाभिमानी है इस कारण से मानी
कहा है ।
१२. माथी यह स्वार्थ पूर्ति के हेतु माया-कपट करता है अतः उसे मायी कहते हैं 1
१६. योगी - मन वचन और काय के रूप में व्यापार (क्रिया) करता है इस हेतु से योगी
कहा है।
१७. संकुट - जब अतिसूक्ष्म शरीर को धारण करता है, तब अपने प्रदेशों को संकुचित कर लेता है इस दृष्टि से संकुट कहा है।
१८. संकुट - केवली समुद्घात के समय समस्त लोकाकाश को अपने आत्म प्रदेशों से व्याप्त कर
ता है अत: असंकुट भी है ।
१९. क्षेत्रज्ञ - अपने स्वरूप को तथा लोकालोक को जानने से क्षेत्रज्ञ कहते हैं ।
२०. अन्तरात्मा - आठ कर्मों के भीतर रहने से अन्तरात्मा भी कहते हैं ।
'जीवो का य वचा व पाणी भोत्ता व पोलो ।
वेदो विष्णु सयंभू व
सरीरी तह मायवो ॥१॥
१. धवला गाइ ८२-८३