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व्यवहार भाषा से अनुरंजित है, उसे भाषाविजय कहते हैं । प्राकृत में विचय का भी विजय बन जाता है । विचय निर्णय को कहते हैं तथा विजय समृद्धि को । विश्व में जितनी भाषाएं हैं, उन सब का अन्तर्भाव वाद में हो जाता है, अर्थात् यह अंग सभी भाषाओं से समृद्ध है, कोइ भी बोली या भाषा इससे बाहिर नहीं रह जाती ।
८. पूर्वगत -- जिसमें सभी पूर्वो का ज्ञान निहित है। पूर्व उसे कहते हैं, जो सर्वश्रुत से पूर्व कथन किया गया हो, उसके अन्तर्गत को पूर्वंगत कहते हैं ।
६. अनुयोगगत - जो प्रथमानुयोग तथा गण्डिकानुयोग से अभिन्न हो, अथवा उपक्रम, निक्षेप, नय और अनुगम इन चार अनुयोगों से अनुरंजित हो, अथवा द्रव्यानुयोग, गणितानुयोग, चरणकरणानुयोग और धर्मकथानुयोग से ओतप्रोत अनुस्यूत को अनुयोगगत कहते हैं । यद्यपि पूर्वगत तथा अनुयोगत यं दोनों वाद दृष्टिवाद के ही अंश हैं, तदपि अवयव में समुदाय का उपचार करके इन दोनों को दृष्टिवाद ही कहा गया है ।
१०. - सर्वं प्राण भूत- जीव-सत्व सुखावहवाद - विकलेन्द्रियों को प्राणी, वनस्पति को भूत, पंचेन्द्रियों को जीव और पृथ्वी - अप्-तेजो वायु इन्हें सत्व कहते हैं । अथवा ये सब जीव के अपर नाम हैं, उन सबके दृष्टिवाद सुखावह या शुभावह है। संयम का प्रतिपादक होने से तथा सबके निर्वाण का कारण होने से यह अंग सर्व प्राणी भूत जीव-सत्व हितावहवाद कहलाता
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परिकर्म की व्याख्या
परिकर्म दृष्टिवाद का प्रथम अध्ययन है, इसमें अधिकतर विषय गणितानुयोग का है । गणित अन्य विद्याओं की अपेक्षा अधिक व्यापक है । गणितविशेषज्ञ किसी भी कार्य में असफल नहीं रह सकता । गणित प्रथम श्रेणी में १, २ आदि से लेकर एम, ए० पर्यन्त पढ़ाया जाता है, तत्पश्चात् अनुसन्धान करने पर पीएच डी की उपाधि भी प्राप्त की जाती है। जो भी विश्व में पी एच डी उपाधिधारी हैं, वे भी गणित के सब प्रकारों को नहीं जानते । गणित केवल घटाना, बढ़ाना, भाग देना, जोड़ना, इनमें ही नहीं है, प्रत्युत सभी व्यवहारों में हिसाब के प्रकार भिन्न-भिन्न हैं। नक्शा व चित्र बनाते या लेते समय भी हिसाब से ही काम लिया जाता है । प्रत्येक वस्तु का निर्माण हिसाब से ही होता है। जहां हिसाब से काम नहीं चलता, वहां मीटरों से काम लिया जाता है। पानी, विद्युत, गति, बाष्प, ऊँचाई, समतल आदि जानने के लिए. मीटर बने हुए हैं, घड़ियां बनी हुई हैं, और यंत्र भी उनके द्वारा हिसाब लगाने में सुगमता रहती है । विश्व में ऐसा कोई कार्य विभाग नहीं, ऐसा कोई विषय नहीं, ऐसी कोई विद्या, कला, शिल्प नहीं, जिसमें गणित की आवश्यकता न हो। इसी कारण दृष्टिवाद में सर्व प्रथम परिकर्म अध्ययन रखा गया है । दृष्टिवाद में गणित की शैली कुछ विलक्षण ही है । ग्यारह अंगसूत्रों में संख्यात का वर्णन बिशद रूप से मिलता है। किन्तु असंख्यात और अनन्त का विस्तृत विवेचन नहीं, जितना कि दृष्टिवाद के परिकर्म नामक प्रथम अध्ययन के अन्तर्गत है । संख्यात, असंख्यात और अनन्त का संक्षिप्त दिग्दर्शन कराना जिज्ञासुओं की
१. दिट्टिवायरसणं दस नामभेज्जा प०, तं० दिट्टिवातेति वा, हेउवातितेवा, भूयवातेति वा, तच्चवातेति वा सम्मावातेति वा, धम्मावातेति वा, भासावातेति वा, पुन्त्रगतेति वा, अणुजोगगनेति वा, सव्वपाणभूयजीवसत्त सुझावहेति वा ।
- स्थानाङ्ग सूत्र, स्था० १०वां, सू० ७४२ ।