Book Title: Nandanvan Kalpataru 2013 12 SrNo 31
Author(s): Kirtitrai
Publisher: Jain Granth Prakashan Samiti

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Page 18
________________ अभवन्ननु जातमात्रतो, भवतश्चाऽभिरतं मनो वृषे । नियतं कृतपुण्यकर्मणां, प्रभवत्येव शुभायती रतिः ॥५॥ सुकृतात् सुखिनः सदाऽङ्गिनः, कलुषाद् दुःखपराश्च जन्मिनः । इति वीक्ष्य भवान् भवच्छिदे, विरतिं यौवनतो गृहीतवान् ॥६॥ चरणाम्बुजसेवनाच्चिरं, समसिद्धान्तविमर्शपारिणः । विजयान्वितनेमिसद्गुरोः, समलब्ध श्रुतमिष्टसाधकम् ॥७॥ विहरन् विविधं पुरादिकं, वकल्याणपरायणो भवान् । जिनधर्ममुपादिशज्जनान्, परमानन्दपदैककारणम् ॥८॥ सुर-गुर्जरवाचि बोधदा, व्यतनोत् काव्यततीः शुभाः कृती । बुधशिष्यगणैः सुसेवितो, जयतात्सूरिवरः क्षमातले ॥॥ रचितेति गुणस्तुतिर्मया, शुभभक्त्युल्लसितात्मवृत्तिना । गुरुदेवपदाम्बुजालिना, बुधतत्यन्तिमहेमसाधुना ॥१०॥

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