Book Title: Munidwaya Abhinandan Granth
Author(s): Rameshmuni, Shreechand Surana
Publisher: Ramesh Jain Sahitya Prakashan Mandir Javra MP

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Page 11
________________ सम्पादकीय इस अनुसन्धान के युग में मानव समाज पूर्णतः भटक चुका है । 'बाह्याडम्बर में अपने सुखसुविधा के सुनहरे स्वप्न संजोने की भूल कर रहा है। वस्तुतः कुटिया से लेकर महलों में रहने वाले नर-नारियों का उभय-पक्षी जीवन आज अशांत, उद्विग्न एवं विनाश के कगार पर खड़ा तूफान है, यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति के हृदय में आज एक आँधी है, कसक है, टीस है, कचोट है, राग-द्वेष और क्लेश है। यह सुख का राजमार्ग नहीं, अपितु विनाश एवं ह्रास की ओर बढ़ते चरण हैं। विज्ञान आज चन्द्रलोक एवं मंगल-बुध ग्रहों के गवाक्ष में पहुंचने का जोर-शोर से प्रयत्न कर रहा है। परन्तु इस धवल धरातल पर स्वर्गीय सुषमा के बदले अणु-शस्त्रों का एवं विषैलेगैस यन्त्रों का निर्माण करके सचमुच ही नरक जैसा वीभत्स एवं घिनौना दृश्य उपस्थित किया है। एक क्षण की भी गारण्टी (Gurunty) नहीं, कि-अमुक देश और राष्ट्र निर्भय एवं सुरक्षित हैं ? पता नहीं, किस समय में प्रलय मच जाय? फिर प्रगतिवाद का शंखनाद करना क्या हास्यास्पद बात नहीं है ? मेरी दृष्टि से विज्ञान की यह सफलता नहीं, अपितु बहुत बड़ी पराजय है। क्योंकि सूर्य प्रकाश की तरह प्रत्यक्ष है कि-आज वैज्ञानिक शक्तियों का उपयोग सर्जनात्मक कार्यों में न होकर विध्वंसात्मक परियोजनाओं में हो रहा है। वस्तुतः जीवन व्यवहार में और साहित्यालोक में धर्म और विज्ञान का समन्वय होना अत्यावश्यक है। इसके समाधानार्थ यदि हम भारतीय ऋषि मुनियों की गरिमा-मंडित जीवन गाथाएं पढ़े और सुने । जैसा कि कहा है संसारसागरस्यान्तं, गंतुमिच्छति चेद्यदि । चरित्रं महतां पोतं, कृत्वा गच्छंतु भावुकाः ॥ -इस अपार संसार समुद्र से पार होने की यदि इच्छा है तो महान् पुरुषों के चरित्र रूपी नौका का आधार लेना चाहिए। अत्यन्त प्रसन्नता की बात है कि इस समय जैन समाज में प्रमुख सन्त शिरोमणि, प्रख्याति प्राप्त, समत्व योगी, समन्वय सिद्धान्त के प्रबल पक्षधर, करुणा-सागर, मालव के महान् सन्त रत्न ज्योतिर्विद श्रद्धय उपाध्याय गुरुदेव श्री कस्तूरचन्द जी महाराज एवं सिद्धान्तप्रिय, जैनागम तत्व विशारद, प्रवचन विशारद श्रमण संघीय प्रवर्तक श्री हीरालाल जी महाराज साहब के इस समय साधनामय जीवन के क्रमशः ७० और ५५ वर्ष सम्पन्न होने जा रहे हैं । इन द्वय महा मुनि का मंगलमय जीवन का सम्पूर्ण समय स्व तथा पर कल्याण में जनोपकार में एवं भूले-भटके राहगीरों के लिए मार्गदर्शक के रूप में बीत रहा है। वस्तुतः यह जैन समाज के लिए गौरव का प्रतीक है। यद्यपि मेरे लिए, इनका शैशव काल एवं पूर्व मुनि जीवन केवल श्रुति का विषय रहा है तथापि आपश्री के संयमी जीवन के लगभग दो दशकाधिक वर्ष मेरे अनुभव के विषय रहे हैं । मेरी स्थूल बुद्धि ने इन पच्चीस वर्षों में इन महान मुनियों को बहुत ही सन्निकटता से देखा एवं परखा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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