Book Title: Mularadhna
Author(s): Shivkoti Acharya, 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 8
________________ मूलाराधना प्रस्तावन ऐसा था, घे योनो शवधर्मके परमोपासक थे. स्वामी समंतभद्राचार्य के उपदेशसे ये दोन भाई जैन मुनि हो गये ऐसा फामताप्रसादजीने वीरपाठावलीमें लिखा है. भायधना कथा कोषमें भी इनकी कथा मिलती है तथा श्री नेमिदत्त कविने शिवकोटि आचार्यने भगवची आराधनाकी रचना की है पेसा उल्लेख भी किया है. शिवकोटी आचार्यके प्रस्तुत ग्रंथपर श्रीअपराजित सूरीकी विजयोदया टीका, श्री. पं. आशाधरजीकी मूलाराधना दर्पण टीका, शिवजीलालकी भायार्थ दीपिका टीका, है. इनमेंसे अपराजित सूरीकृत विजयोदया टीका, और पं. आशाधरजी की मूलारायना दर्पण पंजिका ये दोन दीकायें तथा श्री अमितात्ति आचार्यके भगवती आराधनाके प्रत्येक गाथाका जिसमें अभिप्राय आया है ऐसे शोक इतने ग्रंथ इस भगवती आराधना के साथ जोड दिये हैं. विजयोदया टीका श्रीअपराजित सूरिने रची है यह टीका बहुत विस्तृत है. इसकी श्लोक संख्या लगभग सोलह हजार होगी. हमने आचार्य अपराजित सूरिकी प्रशस्ति ग्रंथ में जोड़ दी है. इस से पाठकगणको आचार्य का परिषय होगा. श्री अपराजित सूरिका ही दूसरा नाम विजयाचार्य अथवा श्रीविजय ऐसा है. पं. आशाधरजीने मूलाराधना दर्पण नामकी टीका लिखी है. उसमें अनेक स्थलोंमें 'इमां गाथा श्रीविजयो नेच्छति' अर्थात् यह गाथा श्री विजयाचार्य क्षेपक समझते हैं. श्रीविजयाचार्यस्तु मिथ्यात्वसेवामतिचार नेप्रति । तथा च तनयो । मिथ्यात्मश्रद्धानं नत्सेवायां मिध्याष्टिरेवासौ इति नाविचरता" अर्थात् श्रीविजयावाय मिथ्यात्वकी सेवा करना यह सम्यग्दशेनका अतिचार नही है अर्थात उससे तो श्रद्धान अर्थात् सम्बग्दर्शन नष्ट ही होता है ऐसा कहते हैं. ऐसा लिखकर आगे पं. आशाधरजीने खुद्द विजयोवा टीकाका उस अभिप्रायका उनका वाक्य भी दिया है. यह वाक्य इसी गंधके १४४ पृष्ठपर पाठकगण देख सकते हैं, सही प्रकार कभी श्रीविजयके बदले केबल टीकाकार ' इस शब्दका भी पं. आशाधरजी प्रयोग करते हैं. जैसे " टीकाकारस्तु 'सामान्यमृतेः विशेषमतिः फर्मवया निर्दिष्टा तथा गोपो पुष्टमित्याचष्टे ग्रह पंक्ति १.८ पृष्ठ पर छपी है. इन प्रमाणों में यह बात सिद्ध होती है कि श्री विजयाचार्य अन्य कोई नहीं है. श्री अपराजिससूरि ही है. अपराजिस सूरीन भगवती अराधनाकी स्वकृत टीकाका विजयशेक्या ऐसा नाम विधान किया है उसी प्रकार दशवकालिक प्रेथपर भी इन्होने दीका रची है. और उसका नाम भी यही श्रीविजयोदया टीका ऐसा ही दिया है. इसी प्रथमें पृष्ट ११९६ में खुद आचार्यजीन ' दशकालिकटीकायां श्री विजयोदयायां प्रपंचिता उद्गमादिदोषा इति नह

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