Book Title: Mularadhna
Author(s): Shivkoti Acharya, 
Publisher: ZZZ Unknown

View full book text
Previous | Next

Page 7
________________ मूलाराधना शिवकोटि आचार्यने रत्नमाला में समन्तभद्राचार्य का बढे गौरवसे नामोल्लेख किया है इससे वे समन्तभद्राचार्यजो अपना गुरु मानते होंगे ऐसा सिद्ध होता है, जैसे स्वामी समंतभद्रो मेऽहर्निश मानसेऽनघः । तिष्ठताज्जिनराजोद्यच्छासनाम्बुधिचंद्रमाः ॥ मेरे में हमेशा निवास करे. आचार्य समन्तभद्र जैन शासनरूप समुद्रको चंद्रके समान वृद्धिंगत करनेवाले थे. पाणितलभोजिया सिवज्जेण ऐसा भगवती आराधना में अपना नामोल्लेख किया है अर्थात् हस्तपात्र में भोजन करनेवाले शिवकोट्याचार्यने यह भगवती आराधना रची है. अर्थात् पाणितभोजि शब्द से उन्होंने अपना दिगंबर जैनयतित्व सूचित किया है. परंतु पं. नाथुराम प्रेमीजी इस शब्दसे यह अभिप्राय निकालते हैं कि उस समय कोई मुनि पात्र में भी भोजन करते होंगे. परन्तु यह शंका बिलकुल निरर्थक है. जबतक में खट्टा होकर इस्तरूपी पात्र से आहार लेने में समर्थ रहूंगा aea ही भोजन करूंगा. जब खड़ा रहने का सामर्थ्य मेरा नष्ट होगा तब मैं आहारका त्याग करूंगा ऐसी दीक्षा के समय में दि०जैन मुनि प्रतिक्षा महण करते हैं. चाहे वे स्थविरकल्पी मुनि हो चाहे जिनकरुपी मुनि हो. दोनोंके मूलगुण समान ही रहते हैं. दि० जैन मुनि कभी बैठकर और पात्र में आहार लेते नहीं हैं. उयेतविरत्व की किसीको शंका होगी वह न हो इसी हेतुसे शिवकोटि आचार्यनें अपने नाम के पीछे पाणितळ भोजी यह विशेषण जोड दिया है. चतुर्थकालमें भी स्थविरकरपी मुनि होते थे परन्तु पंचमकाल में स्थबिरकल्पी मुनि ही उत्पन होते हैं. वचवृषभसंहननादि तीन उत्तम संदननोंके धारक ही जिनकी मुनि होते हैं. इन उत्तम संहननौका सद्भाव चतुर्थकाल में ही रहता है. अन्यत्र नहीं. श्वेताम्बेके यहां अचेलक्य, वगैरह दशविध स्थितिकल्पका उल्लेख होगा परंतु यह नाममात्र ही है. उसका आचरण दि. जैन मुनियोंमें ही समीचीनरूपसे पाला जाता है. श्रीशिवकोटी आचार्य दि. जैनयविधी थे उन्होने अपने प्रध में नग्नता, छोच, शरीरममत्वका त्याग तथा मयूर पिच्छ धारण करना ये जैन यतीका उत्सव लिंग है. ऐसा लिंगाधिकार में वर्णन किया है इससे दिगंबर और इवेतांचरत्व का भेद उस समय भी था ऐसा झटकता है. शिवकोटि आचार्य गृहस्थावस्था में शिवकोटि नामके काळी देश के राजा थे. इनके भाईका नाम शिवायन प्रस्तावना

Loading...

Page Navigation
1 ... 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 ... 1890