Book Title: Mere Divangat Mitro ke Kuch Patra Author(s): Jinvijay Publisher: Sarvoday Sadhnashram Chittorgadh View full book textPage 9
________________ किंचित् प्राक्कथन प्रयत्न करने लगा था। मैंने उक्त प्रवर्तक मुनिमहाराज को निवेदन किया कि हिन्दी भाषा में सरस्वती नाम की एक बहुत अच्छी मासिकः पत्रिका प्रकाशित होती है जिसमे समय समय पर इतिहास और पुरातत्व विपयक लेख भी प्रकाशित होते है। मेरे निवेदन पर उन्होने इस पत्रिका के मंगवाने का प्रबन्ध किया"" .. " । अवलोकन करते ला, जो सात-अन्य को पाटन के जैन भंडारों का अवलोकन करते समय मुझे एक ऐसे छोटे से संस्कृत ग्रंथ को देखने का अवसर मिला, जो सात-आठ सौ वर्ष पुराने लिखे गये ताडपत्र पर आलेखित था। इस ग्रन्थ की उपलब्धि ने जैन साहित्य के एक बहुत विवाद पूर्ण विषय पर नूतन प्रकाश डाला। इसका विशेष विवरण देना तो यहां प्रासगिक नही है परंतु इस पर से मुझे एक छोटा सा लेख लिखकर किसी साहित्यिक पत्र मे प्रकाशित करने का मेरा प्रवल मनोरथ हुआ। और तदनुसार "जन शाकटायन व्याकरण कब बना" इस नाम का एक छोटा-सा - लेख कई दिनो के परिश्रम के साथ तैयार किया और उसे प्रकाशित करने के लिये सरस्वती के प्रसिद्ध संपादक मुकुटमरिण एवं हिन्दी भाषा के महान् प्रतिष्ठापक तथा उन्नायक स्वर्गीय पं० श्री महावीरप्रसादजी द्विवेदी को देखने के लिये और योग्य लगे तो सरस्वती मे प्रसिद्ध करने के लिये भेज दिया। "मेरे इस छोटे से लेख को प्राप्त कर श्री द्विवेदीजी ने नही, कानपुर से ता. १६-५-१९१५ को अपने स्वहस्ताक्षरो से डेढ़ पक्ति वाला एक पोस्टकार्ड लिखकर भेजा जिसमे लिखा कि "शाकटायन पर लेख मिला, कृतज्ञ हुआ। धन्यवाद, छापूगा। (देखिये प्रस्तुत पत्रावली के पृष्ठ १५८ पर द्विवेदोजी का प्रथम पत्र) मेरे दिवगत मित्रों के सैकडो पत्र मेरे पास पड़े हैं जिनमे श्री द्विवेदीजी का यह डेढ पक्ति और तीन वाक्यो वाला पत्र मेरे । साहित्यिक जीवन के सुप्रभात की प्रथम किरण दिखाने वाला है।Page Navigation
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