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दाता समः सत्यपरः क्षमावान्, आप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।।
'नित्यम् हिताहार विहारकारी' इसका अर्थ है - आदमी सम्यक और संतुलित आहार-विहार करे। आदमी जैसा खाता है, उसका मन भी वैसा ही हो जाता है। मन में, शरीर में चेतना आती कहां से है, भोजन से ही तो। उपनिषदों में कहा गया है- अन्नम् ब्रह्म। अथवा अन्नं वै प्राणाः। अन्न से ही शरीर का विकास होता है। इतना भी न खायें कि आलस्य पैदा हो और इतना कम भी न खाएं कि जीना ही मुश्किल हो. जाए। ऐसा न खाएं कि शरीर में उत्तेजना पैदा हो, तामसिक वृत्तियाँ आप पर हावी हो जाएँ। शरीर को उत्तेजित करने से शरीर की कुरूपता बढ़ती है। हमें ऐसा आहार नहीं करना चाहिए जो हमें मादकता दे, हमारे शरीर को क्षीण कर दे।
व्यक्ति शराब पीता है और उसे आनंद आता है, ऐसा नहीं है। वास्तव में यह आनंद नहीं है, मूर्छा है। शराब आदमी के शरीर के सैल्स को निष्क्रिय कर देती है और वह निढाल होने लगता है। उसका मस्तिष्क गलत दिशा में चलने लगता है। इससे कई विषमताएं उत्पन्न होने लगती हैं। इसलिए आहार सम्यक् ही होना चाहिए।
दूसरी बात है सम्यक् विहार। आदमी खाता तो चौबीस घंटे है लेकिन विहार नहीं करता। विहार के अभाव में शरीर का नियमित चक्र गड़बड़ाने लगता है। खाना तो आदमी दस बार खा लेगा लेकिन शौच एक बार ही जाएगा। विहार और व्यायाम न होगा तो एक बार भी शौच जाने के लिए तरसेगा। शरीर तो जितनी जरूरत है उतना ही पचा सकता है। अधिक खाओगे तो विषमता पैदा होगी।
कुछ लोग निःसंकोच रक्तदान करते हैं। कुछ ऐसा करने से घबराते हैं। आप जो भोजन करते हैं, उसके रस से ही तो खून बनता है। रक्तदान करने से कमजोरी थोड़े ही आती है। तीन दिन में उतना रक्त फिर बन जाता है। लेकिन यदि शरीर में खून की मात्रा उचित है तो अधिक भोजन भी और खून नहीं बना सकेगा। शरीर की ग्रंथियों का हिसाब ही ऐसा है। दिन-रात भोजन-भोजन करते रहते हो। इसे रोको । पेट को तंदूर बनाते चले जाओगे तो तुम्हारा भला न होगा।
व्यायाम क्या है? प्राणों के आयाम को विस्तार देना ही व्यायाम है। इससे खून की गति बढ़ेगी, आप में चुस्ती आएगी। आदमी सुबह
मानव स्वयं एक मंदिर है | २४
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