________________
कुछ हमारे नजरिये पर निर्भर करता है। शुद्धता, पवित्रता, साम्यता लयबद्धतता तो चाहिये हमारे तन-मन-वचन में। मन में कुछ हो, वाणी में कुछ और ही आता रहे, और करने के नाम पर कुछ तीसरा ही करते रहे, यह विरोधाभास है, अंधकार है।
वैषम्य से बाहर आओ, दलदल से ऊपर खिलो। फूल को खिल ही जाने दो। जीवन का पटाक्षेप तो होगा। जीवन में मृत्यु आए, जब भी आए, कोई परवाह नहीं, पर हम उन कारणों को मिटा दें, जो जीवन को ही मर्त्य बना डालते हैं। मृत्यु की बजाय, हमारी मृत्यु या हमारा जीना निर्वाण का महोत्सव हो जाये, तो हमारा सौभाग्य! नहीं तो भी पूर्णता को, मुक्ति को, निर्वाण को, परिपूर्ण खिलावट को अपने में जीने का प्रयास तो किया ही जा सकता है।
जो होना होगा, सो होगा; बस हम अपने में होंगे। हमसे कुछ हो जाये, तो अच्छी बात है, न भी होगा, तो भी हम तो अपने में हो ही जाएंगे, अपनी ओर से तो सबको अपने में समाविष्ट कर ही लेंगे। एक होकर, समग्र अस्तित्व होकर जी ही जाएंगे। यही चाहिये। इतना ही काफी है।
anamannermencommmmmmcccommonsomeonemoonamoroomsecommonsoonommonoonom00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001
मानव हो महावीर / ८३
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Personal & Private Use Only