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रहा है। जीवन का अंतिम चरण जितनी प्रफुल्लता के साथ होगा, जीवन उतना ही खिला हुआ कहलाएगा। परम विश्राम तक पहुंचने के लिए जीवन के रास्ते से गुजरना पड़ेगा और तब दोनों परिस्थितियां आएंगी - अनुकूल की, प्रतिकूल की, मृत्यु की, अमरत्व की, अंधकार की, प्रकाश की। जीवन तो नट की रस्सी की तरह है, जिस पर हमें अनुकूल व प्रतिकूल के बीच संतुलन बनाए रखकर चलना है। अगर संतुलन न रख पाए तो आत्मा गिर जाएगी, रीढ़ की हड्डी टूट जाएगी। रस्सी पर चलना है तो संतुलन बनाए रखना होगा। जिसका संतुलन टूट गया, वह औंधे मुंह नीचे आ गिरेगा। जागो और बढ़ो हरपल, सतत् अंधकार से प्रकाश की ओर ।
___ अपने पास जो भी है, उसका बोधपूर्वक उपयोग करो। जरूरत से ज्यादा संग्रह मत करो। ज्यादा हो, तो अपरिग्रह-भाव से उसे जरूरतमंदों को बांटने की उदारता बरतो। हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मिथ्या भाषण, नशे के सेवन से परहेज रखो। मन को वश में रखो। मन के प्रवाह में बहते रहने की बजाय, ऐसा प्रज्ञा-प्रदीप प्रगट करो, जिससे तुम अपनी विचार-आचार स्थिति के प्रति सजग रह सको।
जो जैसा है, उसे जानो। प्रिय हो या अप्रिय, राग-द्वेष से रहित होकर, उसके प्रति अपने चित्त का सन्तुलन बनाये रखो। प्रवृत्ति या कर्मयोग से स्वयं को विमुख मत करो। यह तो एक प्रकार का पलायन होगा, जीवन से ही बचना और भागना होगा। अपने कर्मयोग को तो
और प्रखर करो। चित्त में तटस्थता हो इसलिए कि अपने-पराये का भेद गिर सके। विषयों की अनुपस्थिति का तुम आनंद ले सको। भीतर की शांति का रसास्वाद कर सको।
जीवन से भागो मत। जीवन तो क्या, विषयों से भी दूर मत भागो, दूर भागने से क्या होगा? मन तो उनसे जुड़ा हुआ ही रहेगा। तुम अप्राकृतिक हो जाओगे। बेचारे विषयों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा? तुम ही बिगड़े हो। तुम्हारा दृष्टिकोण बिगड़ा हुआ है। विषय तो न तो अच्छे होते हैं, न ही बुरे। वे न मित्र होते हैं, न शत्रु। वे तो जैसे हैं, वैसे हैं। कोरे कागज़ की तरह। हम अपने को उससे संलग्न करके कोरे कागज़ पर कीचड़ उछाल लेते हैं या इन्द्रधनुष उकेर लेते हैं। तुम विषयों से निर्लिप्त हो, निस्पृह हो, तो वे भी निर्लिप्त हैं, निस्पृह हैं। सब
प्रज्विलत हो प्रज्ञा-प्रदीप / ८२
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