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मनुष्य को जीने की कला आनी चाहिए। जिसे जीने की कला आ गई, समझो, उसने धर्म को आत्मसात कर लिया। धर्म उसे और वह धर्म को उपलब्ध हो गया। जो व्यक्ति विचारों से जितना महान होगा,उसका व्यक्तित्व भी उतना ही महान होगा। जिन बातों से हमारे विचार आंदोलित होते हैं, वे ही हमारा व्यक्तित्व बनाते हैं। असल में हमारे विचार ही तो हमारा व्यक्तित्व है। व्यक्तित्व विचारों का प्रतिबिम्ब है। विचारों को हम नजर अंदाज नहीं कर सकते। विचार व्यवहार की पृष्ठभूमि है।
व्यक्ति के विचार उसके जीने के तरीके को प्रभावित करते हैं। न जाने हमने कैसा चश्मा पहन रखा है कि हमारे लिये जीवन का कोई अर्थ निकलकर ही नहीं आता। कोई आनन्द या उत्सव नहीं बनता। अगर जीवन आनंद और उत्सव बन जाए, स्वयं अनुष्ठान हो जाए, जीवन के प्रति मन में आदर-भाव हो जाए, तो आप तपस्वी हो जाएं। पंच कल्याणक पूजा करवाकर पता नहीं किसी का कल्याण होता है या नहीं लेकिन आप पुलक-भाव में जीने लगे तो आपका कल्याण अवश्य हो जाए।
किसी ने मुझसे कहा कि चातुर्मास में 'चरित्र' का वाचन होता है, आप भी ‘चरित्र' क्यों नहीं पढ़ते? मैं मुस्कुराया क्योंकि केवल चरित्र पढ़कर या सुनकर आज तक कोई चरित्रवान नहीं बन सका। अब तक न जाने कितने-कितने चरित्र पढ़े गए, कितनों के जीवन में चरित्र देखने को मिला? चरित्र पढ़ने से चारित्र्य नहीं आ जाता, उसे तो जीवन में लाना पड़ता है।
__ज्ञान कभी पैसे खर्च करने से नहीं आता। वह तो अर्जन से, स्वानुभव से आता है। एक बार नहीं, बार-बार सौ-सौ रुपए के नोट किताबों पर चढ़ाते जाओगे तो भी ज्ञान नहीं आएगा। सौ-सौ के नोटों के पीछे आपकी प्रतिष्ठा जरूर हो जाएगी, लेकिन ज्ञान नहीं आएगा। बेहतर तो यह होगा कि 'ज्ञान-पूजा' करने वाले प्रतिदिन घर में बैठकर स्वाध्याय का संकल्प लें। ऐसा होगा तो आपका दस मिनट का स्वाध्याय सौ का नोट चढ़ाने से अधिक महत्वपूर्ण हो जाएगा। स्वयं अपने भीतर चारित्र्य का मनन करो। अपने दुष्चरित्र को सच्चरित्र में बदलने का प्रयास करो तो शायद वास्तव में तुम्हारा ‘चारित्र्य' बन
मानव हो महावीर / ४५
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