Book Title: Manav ho Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 64
________________ प्रकार समझ लिया क्योंकि वह चेतना को उपलब्ध हो गया । समय ही मनुष्य की चेतना है। विज्ञान की दृष्टि से देखें तो पानी की परिभाषा दी जा सकती है । हाइड्रोजन व आक्सीजन के संयोग से पानी बनता है। पानी पदार्थ है, तत्व है, इसलिये उसकी व्याख्या हो सकती है। अगर पूछो कि हाइड्रोजन कैसे बना तो विज्ञान उसकी भी परिभाषा दे देगा कि इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन व पोजिट्रोन से मिलकर ही हाइड्रोजन बना है। लेकिन विज्ञान से पूछा जाए कि इलेक्ट्रोन, न्यूट्रोन आदि की परिभाषा क्या है तो वह भी चुप हो जाएगा। ये तो ऊर्जा- कण हैं जो वातावरण में हवा की तरह बह रहे हैं। एक चेतना भर है । तो पानी की व्याख्या हो सकती है। मकान की, मनुष्य की भी व्याख्या हो सकती है, मगर मनुष्य के भीतर जो जीने वाला तत्त्व है, उसकी व्याख्या नहीं हो सकती । शरीर में चमड़ी की परिभाषा है । चमड़ी उतार दो तो मांस दिख जाएगा, हड्डियां दिख जाएंगी, खून भी नजर आ जाएगा, लेकिन जिसके कारण ये सारे तत्त्व जुड़े हुए हैं, जिसके कारण इस शरीर में खून दौड़ रहा है, मनुष्य जीवित है, वह चेतना दिखाई नहीं देगी। वह तो बस है, महसूस की जा सकती है । इसी तरह समय है । समय को हम जितनी बारीकी से देखें, वह हमें उतना ही पारदर्शी दिखाई देने लगेगा। कहीं कोई धूल का कण तक नजर नहीं आएगा । मेरा प्रयास मात्र इतना है कि आदमी को किसी तरह समय का बोध हो जाए। हैरानी यह है कि मैं तीन दिन से समय की महत्ता पर बोल रहा हूं लेकिन कुछ लोग कभी नौ बजे तो कभी सवा नौ बजे तक पहुंच रहे हैं, जबकि मैं नियमित रूप से पौने नौ बजे प्रवचन शुरू कर देता हूं। इसका अर्थ यही हुआ कि समय का बोध अभी दूर है । समय की कोई चेतना ऐसे लोगों को उपलब्ध नहीं हुई । समय का उन्होंने कोई मूल्य नहीं समझा। देर से पहुंचने से तुम्हारा ही नुकसान होता है । रात-दिन में चौबीस घंटे होते हैं, उसमें एक घंटा भी बहुत होता है। लेकिन हमने घंटे में भी मिनट और सैकेण्ड्स तक बांट रखे हैं । आप इसे तय मानें कि सैकेण्ड्स का लाखवां हिस्सा भी महत्वपूर्ण है, फिर उसकी उपेक्षा क्यों ? भगवान महावीर ने अपने शिष्यों को सम्बोधन दिया। उन्होंने एक बार नहीं, हजार बार शिष्यों से कहा कि मेरे प्रिय Jain Education International For Personal & Private Use Only मानव हो महावीर / ६३ www.jainelibrary.org

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