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है और परिपूर्ण होकर ही मरना है । जो प्रकाश को उपलब्ध होता है, वही व्यक्ति परिपूर्ण होता है ।
जब सब कुछ अवांछित होने लगता है, तब व्यक्ति के मन तनाव, उत्तेजना और आवेग भर जाता है। मुस्कुराता हुआ चेहरा क्रोध में तब्दील हो जाता है । अंधकार घेर लेता है, और जब अंधकार घेर लेता है तब अवांछित होने लगता है। नतीजा यह होता है कि मनुष्य के भीतर का प्रज्ञा-प्रदीप बुझ जाता है, धर्म की ज्योति भी बुझ जाती है । तब आदमी ऐसा महसूस करता है कि इससे अच्छा हो, मैं मर जाऊं। ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में जो नासमझ व्यक्ति होगा वह मृत्यु को चाहेगा और जो समझदार होगा वह इसे एक संयोग मानेगा। वह तो सोचेगा कि इस आवेग अथवा उत्तेजना को कैसे दूर करूं ।
प्रतिकूल परिस्थितियां पाकर भी समझदार व्यक्ति अपनी समता तथा संतुलन नहीं खोता । गरीबी में भी, जिस समय आदमी चारों तरफ से अभावों से घिर जाता है, समझदार व्यक्ति यह सोचता है कि ये प्रतिकूल परिस्थितियां हमेशा बनी रहने वाली नहीं है, इसलिए वह अपना संतुलन नहीं खोता, जबकि इन परिस्थितियों में नासमझ व्यक्ति विक्षिप्तसा हो जाता है ।
आपके लिए आयोजित इन ध्यान शिविरों में प्रयास होता है कि जीवन में मानसिक सन्तुलन उपलब्ध हो जाए। जीवन के मार्ग से गुजरते हुए न जाने कितने उतार-चढ़ाव आते हैं। जिन्दगी में परिस्थितियां सदा एक-सी नहीं रहतीं। ध्यान की सार्थकता इसी में है कि व्यक्ति को मानसिक सन्तुलन मिल जाए। जब व्यक्ति के जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियां आती हैं तो वह कितना संतुलन बनाए रखता है ? यही व्यक्ति की असली साधना है । परिस्थितियों से प्रभावित न होना ही वीतरागता की कड़ी है ।
जो की यह सोच लेती है कि मुझे कांटों के बीच रहकर भी फूल बनना है वह फूल बन जाएगी, मगर जो कली इन कांटों को स्वीकार नहीं कर सकी, वह फूल नहीं बन पाएगी और सड़ जाएगी । व्यक्ति के पास अकूत धन-संपदा, जमीन-जायदाद, पद-प्रतिष्ठा होते हैं । सभी बाह्य सुख-सुविधाएं उपलब्ध होने के बावजूद नासमझ आदमी अपने आपको और अधिक असन्तुलित कर लेता है। तब उसमें
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मानव हो महावीर / ७७
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