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मानसिक भटकाव शुरू हो जाता है और वह दूसरों की उपेक्षा करने लग जाता है। वह अपनी ही अकड़ में जीता है।
पैसे के घमंड के कारण, रूप, सत्ता, संपत्ति, पद, प्रतिष्ठा के कारण वह दूसरों को गौण समझता है और यहां तक कि परे समाज को भी उपेक्षित नजरों से देखता है। समाज का उसके लिए कोई अर्थ नहीं रहता। किसी की मृत्यु हो जाने पर, वह उसके उठावने तक में नहीं जाता। वह यह भूल जाता है कि उसे भी मृत्यु के वक्त समाज के कंधों की जरूरत होगी। जब समाज भी अपनी उपेक्षा उसके प्रति प्रकट करता है, जब लोग उसके साथ बैठना पसंद नहीं करते, तब उसके दिमाग में आता है कि मेरे पास सब कुछ होते हुए भी 'कुछ' नहीं है।
धन संपदा पाकर और अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद नासमझ व्यक्ति अपने आपको पतित कर लेता है, जबकि समझदार ऐसी परिस्थिति में सोचता है कि ये धन-दौलत कौन-सी सदा के लिए रहने वाली है। फिर मैं किस बात के लिए घमंड करूं? जीवन परिवर्तनशील है। यहां कल क्या हो जाए, पता नहीं चलता। फिर मैं अपनी झूठी शान-ओ-शौकत पर क्यों घमंड करूं?
जो व्यक्ति अनुकूल और प्रतिकूल, दोनों परिस्थितियों में अपना संतुलन बनाए रखता है, उसके जीवन में धर्म-ज्योति जागृत रहती है। उसकी प्रज्ञा का प्रदीप कभी बुझता नहीं है, हरदम उसे एक विवेक-दृष्टि, एक हंस-दृष्टि उपलब्ध रहती है।
सफी सन्तों की एक बहत प्यारी कहानी है। एक सम्राट था। उसके मन में इच्छा हुई कि वह दुनिया भर के शास्त्रों का निचोड़ समझे, स्वाध्याय करे, लेकिन सारी दुनिया के शास्त्रों व पुस्तकों को पढ़ने का उसके पास समय नहीं था। उसने अपने दरबार के सभी धर्म-गुरुओं को कहा कि तुम अपने-अपने धर्म-शास्त्रों का सार एक-एक पंक्ति में निकालकर बता दो, पर्याप्त होगा। पंडितों ने अपने-अपने शास्त्रों का अध्ययन किया और निचोड़ निकाला, मगर एक पंक्ति में कोई भी अपने शास्त्रों को नहीं रख पाया। रख भी दिया तो सम्राट को संतुष्टि नही हुई।
__ तब सम्राट को पता चला कि नगर के बाहर एक सूफी सन्त ठहरा है, जो मौन रहता है और किसी-किसी से ही बोलता है। वह
प्रज्विलत हो प्रज्ञा-प्रदीप / ७८
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