Book Title: Manav ho Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 57
________________ दूसरी धुरी है पद-प्रतिष्ठा । इसके लिए आदमी न जाने क्या से क्या कर जाता है । वह मूर्ति की प्रतिष्ठा तो करवा देगा लेकिन अपने ही भाई की मदद नहीं करेगा । व्यक्ति की पूरी जिन्दगी दोहरे मापदण्डों से भरी हुई है। लोग मंदिरों का निर्माण करवाते हैं, लेकिन वह भगवान के नाम से कम, बल्कि बनाने वाले के नाम से अधिक चर्चित हो जाता है । बिड़ला मंदिर तो बहुत बन गए हैं लेकिन विष्णु कहां गए। मुख्य द्वार तो बिड़ला का है । कोई संस्था, धर्म, समाज यदि व्यवस्था कर दे कि आप चढ़ावा तो बोल सकते हैं, लेकिन मूर्ति पर नाम नहीं खुदेगा तो यकीन मानिये कोई आगे नहीं आएगा । यदि कोई संकल्प कर ले कि मंदिर तो बनवाएंगे, मगर प्रतिष्ठा करने वाले आचार्य का नाम नहीं लिखा जाएगा, तो आप पूरा देश घूम आइये, आपको आसानी से आचार्य नहीं मिलेंगे । सारा झगड़ा नाम का है। नाम के पीछे जो तत्त्व छिपा है, उसकी तलाश ? आत्मा का तो कोई नाम नहीं होता, और लोग नाम भज रहे हैं, मालाएं जप रहे हैं। राम नाम का जप । अरे यह तो दशरथ का दिया नाम था । 'राम' भगवान थोड़े ही है, यह तो सम्बोधन है । भगवान तो राम में है । इन्सान भगवान नहीं होता । इन्सान में भगवान होता है। असली चीज तो भगवत्ता है । अगर भगवत्ता को प्रणाम करने के भाव आ जाएं तो राम, कृष्ण, महावीर और गांधी में कहीं कोई फर्क ही नहीं है । सब में भगवत्ता है, सिर्फ नाम अलग-अलग हैं। नाम तो पंडितों के दिए हुए हैं, पुकार के लिए, महज पहचान के लिए, बुलावे के लिए। आदमी चला गया, नाम भी चला गया, मगर आत्मा कभी नहीं मरती। वह तो अजर-अमर है, केवल चोला बदलता है । मनुष्य की सारी ऊर्जा धन, प्रतिष्ठा और काम के ऊपर ही खत्म हो रही है। इसी बात का तो गम है। राजनीति में कोई पद के लिए दौड़े तो बात समझ में आती है कि राजनेता का कोई स्वार्थ होगा । सेवा ही करनी है तो बिना पद ही की जा सकती है, लेकिन समाज में भी लोग पद के पीछे भागते नजर आते हैं। आदमी पद के लिए न जाने कितने विरोधाभास खड़े करता है। समाज में यदि कोई पद के लिए दौड़ रहा है तो इसका मतलब यही है कि इसके पीछे उसका कोई सोच हो ऊंचा / ५६ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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