Book Title: Manav ho Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 58
________________ स्वार्थ है। होना यह चाहिये कि समाज के लोग आपके पास आकर कहें कि आप यह पद संभालिये और समाज को संचालित कीजिये। आप में इसकी योग्यता है लेकिन हो इसका उलटा रहा है। समाज आपसे दरख्वास्त नहीं कर रहा, उलटे आप निवेदन कर रहे हैं। जरूर कहीं चूक कर रहे हो। जीवन का सत्य तभी सत्य लगेगा जब उसे सत्य समझने का प्रयास किया जाएगा। वह सत्य जीवन को रूपान्तरित करेगा। इसलिए जब समाज चाहे कि आप व्यवस्था दें, तभी आपको पद संभालना चाहिए। जिस दिन एक व्यक्ति भी खड़ा होकर कह दे कि उसे आपके क्रिया-कलाप पर संदेह है तो उसी समय पद छोड़ दें। एक वक्त था जब राजनीति में डॉ. राम मनोहर लोहिया और राजगोपालाचार्य जैसे लोग केवल इसी बात पर पद छोड़ देते थे। तीसरी चीज है काम-वासना। आदमी के दिन के बारह घंटे तो धन कमाने के लिए भागदौड़ में ही बीत जाते है। इसमें थोड़ा समय वह प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए भी खर्च कर देता हैं। शेष बारह घंटे वह सेक्स के ध्यः। में ही लगा रहता है। वह इसी जुगाड़ में रहता है कि उसकी कामना पूरी हो जाए। ऊपर कोई व्यक्त करे या न करे, अवचेतन में, काम-वासना के विचार रहते हैं। काम की ज्वाला जलती रहती है। वक्त-बेवक्त 'काम' हर समय मनुष्य के मन-मस्तिष्क पर छाया रहता है। जब विचार समाप्त होते हैं तभी हम जान पाते हैं कि हमारे मूल विचार क्या हैं, हमारे विचारों की मूल धुरी ही उसकी पहचान करा देती है। आप एकांत में बैठ जाएं और विचारों को आने दीजिये। जैसे ही विचार समापन की ओर पहुंचेंगे, आपको पता चल जाएगा कि वास्तव में आपके मन में क्या है। किसी की केन्द्रीय धुरी धन, तो किसी की प्रतिष्ठा और किसी की धुरी 'काम' पर घूमती है। तीनों घूम-फिर कर आते रहते हैं। आदमी जब तक विचारों की विपश्यना नहीं करेगा तब तक उसके भीतर ऊहापोह की स्थिति बनी रहेगी। इसलिए विचारों को विशुद्ध करना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। जब तक विचार विशुद्ध न होंगे, हम जीवन के मूल्यों को उपलब्ध नहीं कर पाएंगे। यश, धन और काम - ये तीनों हमारे जीवन के अशुभ केन्द्र हैं। मानव हो महावीर / ५७ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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