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पी रहा है।
ऐसा नहीं है कि आदमी मांसाहारी है इसलिए हिंसा करता है। वह हिंसक है, इसलिए मांसाहार करता है। मूल वृत्तियां तो भीतर हैं। जो भीतर जैसा होगा, वैसा ही उसका व्यवहार होगा। हमारा चारित्र्य वैसा ही होगा। अगर कोई खींचातानी हो जाती है तो आदमी दूसरों पर झल्लाता है, यही तो उसे परखने का अवसर होता है। जब आदमी क्रोध में हो, नशे में हो तो उसे पहचानने का उपयुक्त अवसर होता है। ऊपर-ऊपर से पहचानते रहे तो क्या होगा, बाहर से तो सब ठीक है। कोई व्यक्ति आपकी तारीफ करता है और आप उसकी तारीफ करते हैं, तब तक तो ठीक रहता है, लेकिन एक व्यक्ति बुराई करने लगे तो झगड़ा हो जाए। विपरीत वातावरण में ही तो समझा जा सकता है कि कौन, कितना धैर्य रख सकता है। जो बात-बात में धैर्य खो दे, माधुर्य खो दे, वह मानसिक रूप से दरिद्र है।
आदमी कैसा है, यह भीतर को समझने से पता चलेगा। इस भीतर को जानने के लिए महावीर ने मार्ग दिखाया - सम्यक् दर्शन, ज्ञान, चारित्राणि मोक्ष-मार्गः। यह महावीर की क्रांतिकारी बात है। उनकी शुरुआत सम्यक् दर्शन से होती है। हमने तो महावीर के मार्ग को उलटा कर दिया है और उलटे मार्ग पर कोई नहीं चल सकता। कोई चलने का प्रयास भी करे तो मुंह की खाता है। हमारी यात्रा चरित्र से शुरू होती है, फिर ज्ञान अर्जित करते हैं और फिर सम्यक् दर्शन पर आते हैं। यह विपरीत मार्ग है। यह मार्ग तो वास्तव में मार्ग भी नहीं है। उलटे होने से व्यक्ति में वीतरागता नहीं रही।
वीतरागता और वैराग्य दो अलग-अलग बिन्दु हैं। वैराग्य तो राग के विपरीत होता है लेकिन वीतरागता का अर्थ होता है राग से मुक्ति। राग से ऊपर उठ जाना। वैरागी का प्रयास होता है कि वह सभी से संबंध तोड़ ले; लेकिन वीतरागी जोड़-तोड़ से ही मुक्त होता है। उसे तो हर किसी में आत्मा दिखाई देती है और आत्मा से आत्मा का संबंध होता है। अगर हमारा प्रेम किसी एक के प्रति सीमित हो जाए तो राग हो जाता है। समाज, सारे संसार के प्रति संबंध हो जाए तो वीतरागता कहलाएगी। विराट 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना साकार हो उठेगी।
चेतना का रूपान्तरण / ४८
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