Book Title: Manav ho Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 44
________________ हम अपने भीतर झांकें और मन की पड़ताल करें, तो पाएंगे कि अभी तो मनुष्य को मनुष्य बनने के लिए भी काफी लम्बा सफर तय करना पड़ेगा। दुनिया भर के धर्मों का एक ही लक्ष्य है कि किस प्रकार मनुष्य को मनुष्य बनाया जाए। मनुष्य अभी तक सिर्फ बाहर से ही मनुष्य है भीतर से, मन से उसे मनुष्य बनना शेष है। इस दुनिया में जितने धर्म हैं, उनका जन्म मनुष्य के लिए हुआ है, मनुष्य का जन्म धर्म के लिए नहीं हुआ है। सिद्धांतों को मनुष्य के लिए बनाया जाता है, मनुष्य कभी सिद्धांत के लिए नहीं बनता। मनुष्य तो बदलता रहता है, हर पल बदलता रहता है। हजारों वर्ष की बात तो छोड़ दीजिये, पचास वर्ष पहले और आज के मनुष्य में भी कितना फर्क आ गया है। हर रोज परिवर्तन आ रहा है। हमारी विडम्बना यह है कि हम सिद्धांत तो सदियों पुराने पड़ेंगे लेकिन जियेंगे आज के मुताबिक। सिद्धांत कुछ और कहते रहें और जीवन और लंग से जीते रहें तो यह सिद्धांत और जीवन के बीच घोर विरोधाभास नहीं तो और क्या है? अपने धर्मशास्त्र कहते हैं कि रात को भोजन नहीं करना चाहिये। यह सिद्धांत पच्चीस सौ साल पहले बनाया गया था। जिस सिद्धांत की हम दुहाई देते हैं, उसके सारे अनुयायी रात्रि में भोजन करते हैं तो यह सिद्धांत का मखौल नहीं तो और क्या है? या तो हम सिद्धांतों के मुताबिक अपना जीवन बनाएं या फिर जीवन के मुताबिक सिद्धांत बनाएं। एक रास्ता तो निकालना ही होगा। ___हम यज्ञ की हिंसा का विरोध करेंगे, किन्तु शोषण की हिंसा जारी रखेंगे। अपरिग्रह के नाम पर नंगे पांव चलेंगे, अहिंसा के नाम पर मुंह पर कपड़े बांधेगे, पर संपत्ति का संग्रह और परिग्रह उद्दाम रीति से जारी रखेंगे। अचौर्य-अस्तेय के नारे लगाएंगे और टैक्स की चोरियां करते फिरेंगे। जैसे कर-चोरी कोई चोरी ही नहीं है। उपवास का आयोजन करके अनाज की बचत करेंगे, वहीं जीमनवारी/स्वामी वात्सल्य के नाम पर बचत के भंडार लुटा देंगे। इसी स्वामी वात्सल्य में कोई गरीब/भिखारी आकर भोजन करने लगे, तो उसे दुत्कार कर भगा देंगे, अपमानित करेंगे। अब जो अपरिग्रह बचा है, वह अपरिग्रह के नाम पर महज अपरिग्रह का दिखावा है। मानव हो महावीर / ४३ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90