Book Title: Manav ho Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 43
________________ कोई भी चीज सही नजर नहीं आएगी। कोई मोटी, तो कोई छोटी और कोई बेडौल नजर आएगी। कोई नश्वर तो कोई अर्थहीन नजर आएगी। चश्मा सही लग जाए तो जीवन में अर्थ आ सकता है, माटी से फल खिल सकते हैं, गंदगी खाद बनकर सुगंध सुवासित कर सकती है। सच्चाई तो यह है कि सुगंध गंदगी से ही आती है। उसका मूल वहीं है। फूल का मूल बीज में है, माटी में है। फूल माटी में ही खिल सकते हैं। बस, जीवन को निखारने की कला आनी चाहिए। होगा किसी के लिए धर्म का अर्थ पूजा-पाठ। असल में तो धर्म का अर्थ है - जीवन को निखारने और जीने की कला; जीवन के मूल्यों को उपलब्ध करने की कला; जीवन के रूपान्तरण की कला। आप बांस के जंगलों में जाएं और नजर दौड़ाएं, तो बांस की जिस पुंगरी को हम नजर-अंदाज कर देते हैं, उसमें संगीत की अपरिमित संभावनाएं हैं। उस पुंगरी से वह संगीत निकल सकता है जो आपको मद-मस्त कर दे। इसी तरह जो जीवन आपको अभी क्षण-भंगुर नजर आ रहा है, अर्थहीन लग रहा है, उसमें से संगीत की लहरियां निकल सकती हैं। जीवन में दिव्यता आ सकती है। व्यक्ति के सामने दो ही विकल्प हैं या तो वह पशु बने या प्रभु। अगर मनुष्य का अन्तस् विकृत हो गया तो वह पशु हो जाएगा और उसका पशु मर गया तो वह प्रभु हो जाएगा। जिस मनुष्य का पशु मर जाए, संस्कारित हो जाए, तो उसका प्रभु होना निश्चित है। धरती पर हर कोई प्रभु होने की यात्रा पर है। प्रभु और कोई नहीं, मनुष्य ही होगा, प्राणी ही तो होगा। __ परमात्मा होने का अर्थ यदि आप यह लगाते हों कि परमात्मा बनने पर देवता आरती उतारने आएंगे तो बात दूसरी है। मनुष्य में आत्मा है और यह आत्मा ही तो ‘परम' आत्मा बनेगी। जब तक पृथ्वी पर मनुष्य रहेगा, परमात्मा बनने की संभावनाएं भी जीवित रहेंगी। जब कोई व्यक्ति अपने पूर्ण स्वभाव को उपलब्ध होगा, अपनी परिपूर्णता को उपलब्ध होगा, अपनी आत्मा की प्यास को परिपूर्ण कर लेगा, तब-तब उसके द्वार पर परमात्मा की दस्तक अनिवार्य रूप से होगी। मनुष्य पशु भी हो सकता है और प्रभु भी। सबसे पहले तो मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य ही बन जाए यही बहुत बड़ी बात होगी। चेतना का रूपान्तरण/ ४२ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90