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मगर पति को नहीं खिलाती। यह तो कोई तरीका न हुआ। अगर मानव को मंदिर मानने की समझ विकसित हो जाए तो अतिथि और घरवाले का यह भेद मिट जाएगा। औपचारिकता और उपेक्षा के स्थान पर स्नेह और सजगता स्थापित हो जाएगी। हृदय आनंद और उदारता से परिपूर्ण रहेगा।
वाग्भट्ट के सूत्रों में आपको जीवन का निचोड़ मिल जाएगा। वे कहते हैं - आदमी को समदर्शी होना चाहिए। भले कोई आपकी निंदा या तारीफ करे, आप तो अपना कर्त्तव्य पूरा करते चलिये। दुनिया के हिसाब से चले कि तारीफ हो रही है तो धोखा खा जाओगे। लोग ऊपर से तारीफ करते हैं और पीछे हाथ में छुरा रखते हैं। इसलिए अपने जीवन के उद्देश्यों का, सिद्धान्तों का, तौर-तरीकों का निर्माण दुनिया के हिसाब से मत करो, स्वयं के हिसाब से करो। 'तू तो राम सुमिर, जग लड़वा दे।' आदमी को आगे बढ़ना है।' कर्मयोग का सिद्धांत यही कहता है। कोई बुराई करे या प्रशंसा, समदर्शी बने रहो। चाहे कोई कटुवचन कहे या मीठा बोले, आप तो समदर्शी हो जाओ। इसी का नाम तो संत-स्वभाव है।
समदर्शिता तुम्हें सबका प्रिय बनाएगी। अशान्ति से बचे रहोगे। शान्ति का सार्थक सूत्र है-समदर्शिता । 'सबको बराबर समझो। प्रिय हो या अप्रिय, जो जैसा है, उसे जानो और स्वयं को उद्विग्न किये बगैर अपने चित्त की समता बनाये रखो। यानी खुशी में आपे से बाहर मत आओ और शोक में पागल मत बनो।।
वाग्भट्ट अगले सूत्र में कहते हैं -सत्य वक्ता! आदमी को सत्यवादी होना चाहिए। इससे उसमें निडरता-निर्भयता आएगी। झूठ बोलोगे तो
और कई झूठ हमारा दामन पकड़ लेंगे। झूठ का अर्थशास्त्र ऐसा ही है। वहां एक और एक दो नहीं, ग्यारह हो जाते हैं। निर्भय होना है तो सत्य बोलना सीखो। क्रोध से बचना चाहते हो तो पवित्र बनो, विचारों में विवेक जगाओ। गंभीर बनना है तो बुद्धिमान लोगों की संगत में जाओ।
____सत्य बोलो, सुखी रहो। कोई चिंता, न भय। सत्यवान् तो निश्चिंत सोता है और निर्भय विचरता है। क्षमावान् को क्रोध नहीं आता। चूंकि क्रोध नहीं आता, इसलिए मानसिक शांति भग्न नहीं
मानव स्वयं एक मंदिर है | २८
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