Book Title: Manav ho Mahavir
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 35
________________ रहे हो। यह आत्मघात है । अखबारों में रोज छप रहा है 'वैधानिक चेतावनी : सिगरेट पीना, तम्बाकु खाना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है ।' पढ़कर भी अनपढ़ बने हैं। कहीं यह अंधे को दीप दान तो नहीं हो रहा है? लोग ऐसे काम कर जाते हैं जिससे जीवन का अपघात होता है, जीवन के मूल्यों का 'अवमूल्यन' होता है । जीवन का मूल्य कोई समझे तब न! बदी की आदत नसों में खून की तरह समा गयी है। एक बात तो आम हो चुकी है : आदमी कितना भी गलत से गलत काम कर ले, लेकिन समाज के बीच बैठकर दो-पांच लाख का दान कर डाले, समाज द्वारा अभिनन्दन, फूलमालाएं, प्रशस्ति-पत्र तैयार ! तस्करों और रिश्वतखोरों को भी !! मिलावटियों को भी !!! आखिर मनुष्य की यह हालत कैसे हुई ? मनुष्य का जीवन के प्रति इतना उदासीन और संत्रस्त - भाव आखिर क्यों हुआ ? इसलिए कि हमने इस धरती का मूल्य कभी आंका ही नहीं । हमारे लिए सदा स्वर्गलोक मूल्यवान रहा, लेकिन यह धरती ही एक स्वर्ग बने, ऐसा प्रयास कब, कहाँ हुआ ? मनुष्य को ईश्वर - पुजारी कम, ईश्वर - भीरू अधिक बनाया गया। उसे पुण्य करने की बात कही, ताकि उसका परलोक सुधरे। यानि हमारी नैतिकता, उपासना का फल मृत्यु के बाद ! जीवन में कुछ नहीं ? दृष्टिगत हो रही धरती पर कुछ नहीं ? जीवन के प्रति आदर भाव आए, तो धरती और धरतीवासियों के निःश्रेयस् के भाव स्वतः स्फुरित हों । जो बात, एक युग में मान ली गई, उसे हर युग में दोहराने और बनाये रखने का दुराग्रह हम इस कदर करते गये कि जिन युगों को हमने जीकर छोड़ दिया, उन्हें धर्म और सिद्धांतों के रूप में सदा कहने - करवाने का प्रयास किया। युग प्रगति करते गए, पर वे पुरानी बातें धर्म के नाम पर ज्यों की त्यों ओढ़ाई जाती रहीं। नतीजा यह निकला कि धर्म केवल उपदेश बन गया । धर्म-प्रवर्तकों को, तिथि - त्यौहारों को याद कर लिया जाता है । पर वस्तुतः समाज धर्म से इतनी दूर चला गया है कि उसके चिन्तन में, उसके कृत्यों में, जीवन में, धर्म की कोई झलक नहीं मिलती । धरती पर धर्मों की कमी नहीं है। अगर कमी है तो धार्मिक चेतना की । मनुष्य के हाथ में धर्म नहीं, वरन् धर्म का ऊपरी कलेवर सम्मान करें जीवन का / ३४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90