Book Title: Manan aur Mulyankan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 17
________________ आचार संहिता की पृष्ठभूमि ७ उत्तर : जहां विश्व के आदि बिन्दु के विषय में जिज्ञासा होती है तो यही प्रश्न होगा कि जगत् क्या है ? सृष्टि क्या है ? यह जगत् कहां से आया ? किन्तु जहां o आचार की पृष्ठभूमि की मीमांमा करते हैं वहां यह अस्तित्ववादी प्रश्न नहीं जगत् कहां से आया ? जगत् क्या है ? आचारांग में वस्तुत्ववादी विचारधारा के अनुसार आचार के आधार के रूप में यह सारा निरूपण किया गया है । इसलिए जीव कहां से आया- यहां यही खोज प्रासंगिक है । यह खोज अस्तित्ववादी खोज के उत्तरकाल में होने वाली खोज है । प्रश्न : जाति-स्मृति और पुनर्जन्म का प्रतिपादन तो महात्मा बुद्ध ने भी किया है, फिर भी उन्होंने आत्मा को अव्याकृत कहा । उसमें क्या भेद रहा होगा ? महावीर के आत्म-दर्शन और जाति-स्मृति के जानने में और महात्मा बुद्ध के जानने में- दोनों की क्या दृष्टि थी ? उत्तर : इस विषय में महात्मा बुद्ध का यह चिन्तन रहा कि सामान्य व्यक्ति आत्मा जैसे अमूर्त-तत्त्व के विषय में उलझे नहीं । उसके लिए तो इतना ही पर्याप्त है कि वह दुःख को दूर करता रहे, वासना और तृष्णा को मिटाता रहे और समाधि तथा स्थिरता में रहे। यह बुद्ध की दृष्टि करुणाप्रद थी । वे वर्तमान के दुःखोच्छेद बात कहते थे । आत्मा जैसे अमूर्त-तत्त्व को समझने की आवश्यकता ही नहीं है । अतः उन्होंने इसे अव्याकृत कहा । महावीर ने कहा- जब तक स्वयं के अनुभव में यह बात नहीं आएगी कि मैं कौन हूं, तब तक उसे कितना ही समझाएं, उसकी आस्था जमेगी नहीं । जब कोई एक अनुभव हो जाता है तब उपदेश की आवश्यकता नहीं रहती । वह स्वयं योग में प्रवृत्त हो जाता है । आचार्य का कर्तव्य यह है कि पहले उसे थोड़ा अनुभव करा दें । महावीर का दृष्टिकोण था कि उसे आत्मा का अनुभव हो; इसलिए वे जाति-स्मृति का प्रयोग बताते । स्वयं समाधान कर सको तो करो, अन्यथा विशिष्टज्ञानी हो उसके पास जाकर समाधान लो । पहले यह समाधान लो कि आत्मा है, पुनर्जन्म है । यह अनुभव हो जाएगा तो आचार में व्यक्ति स्वयं प्रतिष्ठित हो जाएगा । प्रश्न : महावीर की दृष्टि में आत्मा किसका कर्त्ता है, पर-पदार्थों में परिणाम कर्त्ता आत्मा है या स्व के परिणामों का कर्त्ता आत्मा है ? उत्तर : आत्मा स्व के परिणमन का ही कर्त्ता है । दूसरे कर्तृत्व का कोई प्रश्न ही नहीं है । यह स्वाभाविक पर्याय है । यह प्रश्न सांख्य दर्शन के सन्दर्भ में भी उठ सकता है । अन्यथा जैन दृष्टि से विचार करें तो स्वपर्याय का कर्त्ता तो पुद्गल भी है । अगुरुलघु- पर्याय जो स्वाभाविक पर्याय है, छहों द्रव्य उसके कर्त्ता हैं । अतः स्वाभाविक पर्याय के कर्तृत्व का तो कोई प्रश्न ही नहीं उठता, फिर आत्म-कर्तृत्व का प्रश्न ही क्या है ? कर्तृत्व वही है जहां व्यञ्जन पर्यायों का निर्माण हो । व्यञ्जन पर्याय दूसरे के योग से ही होगा । पुद्गल के योग के बिना व्यंजन-पर्याय नहीं हो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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