Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 38
________________ २८ मनन और मूल्यांकन अहिंसा का प्रश्त। दोनों की दो भिन्न दिशाएं हैं। दोनों में संगति कैसे हो ? इस प्रश्न पर ही समूचा विस्तार हुआ है। पूर्ण हिंसा-देश हिंसा, अर्थ हिंसा-अनर्थ हिंसा, आरंभजा हिंसा-विरोधजा हिंसा, संकल्पजा हिंसा-ये सारे भेद उस प्रश्न के समाधान में किये गए। पहला विकल्प है—पूर्ण हिंसा-देश हिंसा। आध्यात्मिक विकास के लिए यह अनिवार्य है कि किसी का भी आरम्भ मत करो। यह ध्रुव सिद्धांत है और मेरु की तरह मध्य में स्थित है। इसमें कोई अन्तर नहीं आएगा। इसमें कोई परिवर्तन नहीं किया जाएगा। ध्रुव में कभी परिवर्तन नहीं होता। यह धर्म धुवे नियए सासए-ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है। व्यवहार टूटता हो तो टूटे, विरोध आता हो तो आए, सिद्धान्त यही रहेगा। फिर प्रश्न हुआ कि व्यवहार कैसे चलेगा? व्यवहार के लिए शक्यता या अशक्यता पर विचार किया जा सकता है, किन्तु अहिंसा के विषय में कुछ भी विचार नहीं किया जा सकता । व्यवहार का अर्थ हैअशक्यता । अनारंभ रहकर कोई भी व्यक्ति जीवन नहीं चला सकता। यह अशक्यता है। शक्यता की दृष्टि से विचार करो, न कि अहिंसा की दृष्टि से। चिंतनीय विषय बदल जाता है और सोचने की बात दूसरी हो जाती हैं। हमारे जीवन की अशक्यता है कि आरम्भ किए बिना जीवन को धारण नहीं किया जा सकता। हिंसा या आरम्भ नहीं करना—यह सिद्धान्त है किन्तु जहां अशक्यता का प्रश्न होता है, उसको तो करना ही पड़ता है। यहां निवृत्ति के साथ प्रवृत्ति का सूत्र जुड़ गया । एक सेतु बन गया। एक समझौता हो गया। वह भी काम चलाऊ। हिंसा हिंसा है, किन्तु वह करनी पड़ेगी, क्योंकि उसके बिना जीवन चलता नहीं। जब यह स्वीकृत हो गया कि अशक्य कोटि की हिंसा करनी पड़ेगी तो फिर कहा गया कि मुनि को तो हिंसा करनी ही नहीं चाहिए। उसे 'परिज्ञातकर्मा' होना चाहिए। यह कैसे होगा? यह मान लिया गया कि गृहस्थ अहिंसा में विश्वास रखता है। वह अहिंसा को केन्द्र में रखकर भी अशक्य कोटि की हिंसा से बच नहीं सकेगा, वह करेगा। किन्तु मुनि उस अशक्य कोटि की हिंसा को कैसे करेगा? जब व्यक्ति मुनि बन जाता है तब सामाजिक जीवन से उसकी मुक्ति मान ली जाती है। उसका नया जन्म हो जाता है। उसके लिए जीव-हिंसा से मुक्त होना बहुत जरूरी है। जो जीवनैषणा है, शरीर-धारण की अनिवार्यता है उससे भी उसे मुक्त होना पड़ेगा। मुनि की सामाजिक जीवन से मुक्ति होती है, इसका अर्थ ही है कि जीव-हिंसा से उसकी मुक्ति होती है। जीवियं नावकंखे---यह मुनि जीवन की पहली शर्त है। मुनि जीवन की आकांक्षा न करे। 'मरणधार सुध मग लह्यो' - आचार्य भिक्षु ने मरना स्वीकार कर मोक्षमार्ग पर चलने का दृढ़ निश्चय किया। मुनि बनने का अर्थ ही है-मृत्यु को स्वीकार कर चलना, जीने की आकांक्षा को नामशेष कर देना। अहिंसा से शरीर टिके तो टिके, अन्यथा मेरे लिए मत्यु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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