Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 48
________________ ३८ मनन और मूल्यांकन के लिए नहीं, किन्तु उद्देश्यपूर्ति के लिए हो। ज्ञान ज्ञान के लिए भी हो सकता है । मैं जानता हूं क्योंकि मुझे ज्ञान उपलब्ध है। यह अपने आप उद्देश्य की सार्थकता है । यह अनुचित नहीं है। किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में 'बुज्झेज्ज' शब्द का प्रतिपाद्य है कि ज्ञान ज्ञान के लिए नहीं, कर्तव्य कर्तव्य के लिए नही, किन्तु लक्ष्यपूर्ति के लिए हो।। काण्ट ने कहा, "कर्तव्य कर्त्तव्य के लिए होना चाहिए, किसी लाभ विशेष के लिए नहीं।" यह कथन उचित है, किन्तु पूर्ण नहीं है। यदि कर्त्तव्य कर्तव्य के लिए हो तो शून्यता होगी। उसका अवश्य ही कोई उद्देश्य होना चाहिए, लक्ष्य होना चाहिए। क्या आदमी केवल कार्य करने के लिए ही जन्मा है ? क्या उसका कोई लक्ष्य नहीं है ? क्या वह लक्ष्यहीन जीवन जी रहा है ? क्रिया क्रिया के लिए होगी तो वह व्यर्थ होगी। मनुष्य अनावश्यक क्रियाओं में उलझ जाएगा। क्रिया उद्देश्यपूर्ति के लिए होनी चाहिए। जितना प्रयोजन उतनी क्रिया-यह व्यवहार का बहुत ही महत्त्वपूर्ण सूत्र है। यदि क्रिया केवल क्रिया के लिए ही हो तो वह अनन्त हो जाएगी और उसकी पूर्ति का विरामचिह्न कहीं नहीं लगेगा। ज्ञान और कर्तव्य किसी-न-किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए होने चाहिए। प्रस्तुत सूत्र में 'बुज्झेज्ज' के बाद का शब्द है-'तिउट्टे ज्जा'। इसका अर्थ है-तोड़ो। पहले जानो, फिर आचरण करो, तोड़ो। ज्ञान और आचरण-दोनों साथ-साथ चलें । केवल जानना पर्याप्त नहीं है । यह अपूर्ण है। उसमें तोड़ने का,आचरण करने का प्रश्न ही नहीं आता। किन्तु 'बुज्झेज्ज तिउट्टज्जा' यह ज्ञान और आचरण का समन्वय-स्त्र है। जानो और तोड़ो । दोनों परस्पर जुड़े हुए हैं। दोनों साथ होकर पूर्ण होते हैं । दोनों एक-एक रहकर अपूर्ण होते हैं । आचार-शास्त्र का एक महत्त्वपूर्ण विषय है-आचार-शास्त्र की प्रेरकता। प्रश्न है हम क्यों जानें? यदि कोई प्रेरणा न हो तो जानने की सार्थकता नहीं होती। वह प्रेरणा है-तोड़ना । सामान्यतः प्रत्येक प्राणी की प्रकृति है कि वह सुख की उपलब्धि और दुःख की निवृत्ति के लिए प्रयत्न करता है। आचारशास्त्र ने सुखवादी दृष्टिकोण के आधार पर प्रतिपादित किया कि मनुष्य सुख चाहता है, दुःख नहीं। इसलिए हमारे समूचे आचारशास्त्र का आधार बनता है--सुखवाद । इसका सुख मूल है, यह बात नहीं है। मूल है—राग, काम। वह सुख से प्रेरित नहीं, किन्तु कामना से प्रेरित होकर काम करता है। भगवान् महावीर ने कहा'कामकामी खलु अयं पुरिसे'- मनुष्य काम (कामना) से प्रेरित होकर प्रवृत्ति करता है । हमारी प्रेरणा है-काम । भारतीय आचार-शास्त्र में दो धाराओं का अनुशीलन और अनुचिन्तन किया गया। इन दोधाराओं के आधार पर दो पक्ष बनते हैं-लौकिक और आध्यात्मिक। आचार-शास्त्र के लौकिक पक्ष में काम और अर्थ पर विचार किया गया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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