Book Title: Manan aur Mulyankan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 78
________________ ६८ मनन और मूल्यांकन की चेष्टा का प्रत्याख्यान, वाणी का प्रत्याख्यान, मन की सारी वृत्तियों का प्रत्याख्यान, संस्कारों का प्रत्याख्यान करना संयम है। प्रत्याख्यान की निष्पत्ति है-संयम । प्रत्याख्यान के बिना संयम नहीं होता। संयम के पूर्व में है-प्रत्याख्यान और संयम के उत्तर में है-अनाश्रव । जब तक आश्रवन होता है तब तक विशिष्ट शक्तियां जागृत नहीं होती। विशिष्ट शक्तियों के जागरण के लिए अनाश्रव की स्थिति आवश्यक है। कुछ भी बाहर से झर नहीं रहा है। यह है-अनाश्रव । संयम का फल है-अनाश्रव और संयम का रूप है-प्रत्याख्यान । संयम से अनाश्रव प्राप्त होता है। बाहर का सब कुछ रुक जाता है। जब अनाश्रव होता है तब संवर की स्थिति बनती है। संवर ऐसे ही नहीं हो जाता। मन का संवर, वाणी का संवर, काया का संवर, इन्द्रियों का संवर, कोई भी संवर हो, संवर से पहले अनाश्रव होता है। अनाव के लिए संवर होना जरूरी है। संयम एक साधना की प्रक्रिया है। संवर उसकी सहज निष्पत्ति है। मन का संयम किया, इसका अर्थ है कि मन की प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान किया। जब मन की प्रवृत्तियों का प्रत्याख्यान होता है तब मन का संयम सधता है। जब मन का संयम सध गया तो आश्रव रुक गया, अनाश्रव हो गया। अनाव हुआ तो मन का संवर हो गया। संयम की परिभाषा को समझने के लिए प्रत्याख्यान, संयम, अनाश्रव और संवर-इन चारों को समझना जरूरी है। यह पूरी प्रक्रिया है। जब संवर की स्थिति आती है तब आन्तरिक ऋद्धियां और विभूतियां जागती हैं। . महर्षि पतंजलि ने चार सूत्रों में संयम की स्थिति का निरूपण किया है। धारणा, ध्यान और समाधि-ये तीनों जब एक साथ हो जाते हैं तब संयम की स्थिति बनती है। इसका अर्थ है-प्रत्याख्यान हो गया। धारणा में प्रत्याख्यान है, ध्यान में प्रत्याख्यान है और समाधि में प्रत्याख्यान है। प्रत्याख्यान की मात्रा जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वैसे-वैसे ही संयम की भूमिका भी पुष्ट होती चली जाती है। धारणा में प्रत्याख्यान होता है, किन्तु चरम-बिन्दु का प्रत्याख्यान नहीं होता। एक स्थिति पर चित्त को टिका दिया, इतना हो गया, किन्तु चित्त की तन्मयता ध्येय के साथ नहीं होती। ध्यान में प्रत्याख्यान का कुछ और विकास होता है और समाधि में पूरा प्रत्याख्यान होकर ध्येय के साथ पूरी तन्मयता बन जाती है। ध्यान तक पूरी तन्मयता नहीं होती। ध्येय के साथ दूरी बनी-की-बनी रहती है। ध्येय और ध्यान या ध्याता के बीच में व्यवधान बना रहता है। समाधि में अभेद-प्रणिधान हो जाता है, दूरी समाप्त हो जाती है, तटस्थता या तन्मयता आ जाती है। इसलिए धारणा का उत्कर्ष है-ध्यान और ध्यान का उत्कर्ष है-समाधि। वास्तव में तीनों पृथक् तत्त्व नहीं हैं। तीनों एक ही हैं। किन्तु मात्रा का भेद है। जैसे-जैसे प्रत्याख्यान की मात्रा पुष्ट होती चली जाती है वैसे-वैसे धारणा ध्यान में बदल जाती है और ध्यान समाधि में बदल जाता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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