Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
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१२६ मनन और मूल्यांकन
शाश्वतता और अमरता का क्षेत्र है। वह अपरिवर्तनीय है। सुकरात के अनुसार शरीर एक कारा है। आत्मा उसमें बंदी बना हुआ है। इन्द्रिय और कषायों के दूषण से आत्मा को दूषित करने का स्रोत भी यही है। जब हम शरीर के प्रभावों से कम-से-कम प्रभावित होते हैं, तब हम ज्ञान के अधिक समीप होते हैं-ज्ञान की वास्तविक सीमा में प्रवेश पा जाते हैं। पूर्ण विशुद्धि के लिए आत्मा का शरीर से सर्वथा पृथक् होना अनिवार्य है। सुकरात ने मृत्यु के अन्तिम क्षणों में अपने मित्रों से कहा-सच्चा दार्शनिक सदा आत्मा की खोज में रहता है। अतः वह सदा मृत्यु के अभ्यास में व्यस्त रहता है।
अरस्तू (यूनानी दार्शनिक, ई० पू० ३८४-३२२) ने कहा-आत्मा का अस्तित्व है या नहीं, यह जानना विश्व में सबसे अधिक कठिन कार्य है। इस विषय में उसका तर्क है कि ल्यूक्रेटियस आत्मा को केवल भौतिक अस्तित्व मानता है तो वह भी किसी प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर नहीं मानता। आत्मा के अभौतिक अस्तित्व को मानने वालों के पास भी कोई प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है, इसलिए आत्मा के विषय में विश्वस्त ज्ञान प्राप्त करना बहुत कठिन कार्य है। अरस्तू के अनुसार आत्मा के कारण ही जीवित पदार्थों में जीवन का अस्तित्व है।
प्लेटो (यूनानी दार्शनिक, ई०पू० ४२८-३४८) के अनुसार आत्मा का अस्तित्व शरीर से पूर्ववर्ती है। उसका अस्तित्व स्वतंत्र है और उसका अपना स्वरूप है। उसने तीन प्रकार की आत्माएं प्रतिपादित की हैं--वनस्पति, प्राणी और मनुष्य । वनस्पति निम्नतम आत्माएं हैं। प्राणी मध्यकोटि की आत्माएं हैं और मनुष्य उत्तम कोटि की आत्माएं हैं। विवेकपूर्ण चिन्तन के कारण ही मनुष्य को यह स्थान मिला है। . देकार्ट (फ्रेंच दार्शनिक, ई० १५६६-१६५०) ने आत्मा के अस्तित्व को अभौतिक माना । उसने अपने पक्ष के समर्थन में यह प्रश्न प्रस्तुत किया-मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं। चिन्तन आत्मा का गुण है, इसलिए चिन्तनशील प्राणी ही आत्मवान् है। मनुष्य ही केवल वैसा प्राणी है। अन्य प्राणी या वनस्पति में उसका अभाव है।
लाक और कान्ट ने देकार्ट के तर्क को त्रुटिपूर्ण बताया और उसमें कुछ संशोधन जोड़े।
लाक (अंग्रेज दार्शनिक, ई० १६३२-१७०४) ने यह स्थापना की, चिन्तन के अतिरिक्त संवेदन, स्मृति और कल्पना भी आत्मा के गुण हैं। इसलिए मनुष्य के अतिरिक्त प्राणी भी आत्मवान् हैं। वनस्पति आत्मवान् नहीं है। ___काण्ट (जर्मन दार्शनिक, ई० १७२४-१८०४) ने 'मैं सोचता हूं, इसलिए मैं हूं' देकार्ट के इस तर्क का खण्डन किया। उसके अनुसार देकार्ट के तर्क से आत्मा का अन्तर्दर्शन नहीं हो सकता, उसके सरलता, चेतनता, शाश्वतता आदि गुणों का
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