Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

Previous | Next

Page 118
________________ १४. प्रज्ञा और प्रज्ञ मेरी धारणा थी कि प्रज्ञा के विषय में बौद्ध साहित्य में बहुत चर्चा है । पातंजल योगदर्शन में भी उसकी परिभाषा मिलती है। जैनदर्शन में इसकी चर्चा नहीं है या बहुत स्वल्प है । दो वर्ष पूर्व तक मेरी यही धारणा बनी रही । आगम साहित्य के मंथन का इतना अवसर मिलने पर भी उस धारणा को बदलने का कोई निमित्त नहीं मिला । ज्ञान के अनन्त पर्याय होते हैं । कुछेक पर्यायों को हम छूते हैं, अनछूए पर्याय अनन्त रह जाते हैं । वि० सं० २०३५ कार्तिक शुक्ला १३ के दिन गंगाशहर दीक्षा का बृहद् समारोह था। अचानक आचार्यश्री तुलसी ने कहा - "तुम खड़े जाओ ।" उनके आदेशानुसार मैं खड़ा हो गया । आचार्यश्री ने एक पृष्ठभूमि के साथ मुझे 'महाप्रज्ञ' के अलंकरण से अलंकृत किया। उस दिन मैंने नहीं सोचा था कि एक दिन यह अलंकरण मेरा नाम बन जाएगा । वि० सं० २०३५ माघ शुक्ला सप्तमी के दिन राजलदेसर में आचार्यवर ने मुझे युवाचार्य बनाया और मेरा नाम महाप्रज्ञ कर दिया। मुनि नथमल अब महाप्रज्ञ हो गया । कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी के दिन गंगाशहर में 'महाप्रज्ञ' अलंकरण का अभिनन्दन समारोह किया गया। उसमें आशीर्वाद देते हुए आचार्यवर ने कहा"अब तुम हमारे संघ में अपनी प्रज्ञा की रश्मियां बिखेरो ।" उस दिन से प्रज्ञा और महाप्रज्ञ - ये दोनों शब्द मेरे लिए अन्वेषणीय बन गए । शुभकरणजी दशानी तथा धर्मचन्द चोपड़ा आदि ने महाप्रज्ञ की गरिमा का विश्लेषण किया । मुनि दुलहराजजी ने उत्तराध्ययन को उद्धृत करते हुए 'महाप्रज्ञ' के महत्त्व का वर्णन किया। मुनि गणेशमलजी, मुनि दुलीचंदजी ने महाप्रज्ञ की अनुशंसा की । अनेक साध्वियों प्रज्ञा के प्रति अपना अभिनन्दन प्रस्तुत किया। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने प्रज्ञा के विस्तार की मंगल भावना की । पूरे समारोह में प्रज्ञा और महाप्रज्ञ - ये दो शब्द गुंजित हो रहे थे। मेरे कानो में भी ये दोनों शब्द निरंतर प्रतिध्वनित हो रहे थे और मेरा चित्त उनके अर्थानुसंधान में लग रहा था । पतंजलि का 'ऋतंभरा प्रज्ञा', गीता का स्थितप्रज्ञ और 'तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता' तथा बौद्ध साहित्य का 'पञ्ञ और पञ्ञा' – ये शब्द मेरे स्मृति पटल पर आ-जा रहे थे। जैन साहित्य में उत्तराध्ययन का 'महापण्ण' (उत्तरा० ५।१) शब्द मेरे सामने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140