Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 130
________________ १२० मनन और मूल्यांकन सकती है। एक ही प्रकार के मन को उत्पन्न करना मानसिक एकाग्रता है। इस मानसिक एकाग्रता से चित्त का निरोध होता है। मन, चित्त और बुद्धि-ये चेतना के भिन्न स्तर हैं। फिर भी चित्त और बुद्धि के अर्थ में मन का प्रयोग मिलता है और मन के अर्थ में चित्त और बुद्धि का। इससे पाठक को बड़ी उलझन होती है। इसे सम्यग् दृष्टि द्वारा ही सुलझाया जा सकता है । गीता (५।११) में मन और बुद्धि दोनों का स्वतन्त्र अर्थ है और ५।१३ में मन का बुद्धि के अर्थ में प्रयोग हुआ है । भाष्यकार ने उसका अर्थ 'विवेक बुद्धि' किया है । इन्द्रिय, मन और बुद्धि का स्वतन्त्र चेतना-स्तर के अर्थ में प्रयोग मिलता है-यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मनिर्मोक्षपरायणः (गीता ॥२८) चेतना का पांचवां स्तर है-प्रज्ञा। शब्दकोष में बुद्धि, धी और प्रज्ञा-ये सब एकार्थक माने जाते हैं । वस्तुतः ये एकार्थक नहीं हैं। गीता में प्रज्ञा का प्रयोग बुद्धि के ही अर्थ में किया गया है। इसलिए स्थितप्रज्ञ, स्थितधी-दोनों प्रयोग साथ-साथ मिलते हैं। भाष्यकार ने आत्मा और अनात्मा के विवेक से होने वाले ज्ञान का अर्थ प्रज्ञा किया है। ___ जैन साहित्य में प्रज्ञ, महाप्रज्ञ, आशुप्रज्ञ और भूतिप्रज्ञ का प्रयोग मिलता है। कुमारश्रमण केशी के उत्तर में गौतम ने कहा-धर्म का दर्शन और तत्त्व का निश्चय प्रज्ञा से होता है। इससे ज्ञात होता है कि प्रज्ञा इन्द्रिय-ज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करने वाली बुद्धि से परे का ज्ञान है। कुमारश्रमण केशी ने गौतम की प्रज्ञा को बार-बार साधुवाद दिया। आचारचूला में बतलाया गया है कि समाधिस्थ मुनि की प्रज्ञा बढ़ती है। ध्यान और समाधि के साथ जिस प्रज्ञा १. उत्तरज्झयणाणि, २६।२६ : एगग्गमणसंनिवेसणयाए णं चित्तनिरोहं करेइ । २. गीता, ५।११: कायेन मनसा बुद्ध्या"। ३. वही, ४१३: भाष्य-मनसा विवेकबुदया। ४. वही, २०५४ : स्थितप्रज्ञस्य का भाषा, समाधिस्थस्य केशव । स्थितधीः किं प्रभाषेत, किमासीत व्रजेत किम् ।। ५. गीता २।५५ : भाष्य-स्थिता-प्रतिष्ठिता आत्मानात्मविवेकजा प्रज्ञा यस्य सः स्थितप्रज्ञः। . ६. उत्तरज्झयणाणि, २३।२५ : पन्ना समिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छयं । ७. वही, २३।२८, ३४, ३६, ४४ आदि : साहु गोयम ! पन्ना ते"। ८. आचारचूला, १६।५ : विदू णते 'धम्मपयं अणुत्तरं, विणीयतण्हस्स मुणिस्स झायओ। समाहियस्सऽग्गिंसिहा व तेयसा, तवो य पण्णा य जसो य वड्ढइ ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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