Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 119
________________ प्रज्ञा और प्रज्ञ १०६ था। उसके अतिरिक्त दूसरा शब्द ध्यान में नहीं उतर रहा था। मैंने सोचाआचार्यश्री ने यह शब्द क्यों चुना? इसका रहस्य क्या है ? बहुत चिन्तन करने पर भी मैं रहस्य को नहीं समझ पाया। मैंने अपनी चिरंतन प्रकृति के अनुसार इस प्रश्न को अन्तश्चेतना को सौंप दिया। मैं इस चिन्तन से मुक्त हो गया। इस प्रक्रिया से मुझे सदा समाधान मिलते रहे हैं। कभी अल्पावधि से समाधान मिल जाता है और कभी दीर्घावधि से। मैं उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता। दीर्घकाल तक समाधान न मिलने पर भी अधीर नहीं होता। मेरी धृति ने सदा मुझे साथ दिया है और अन्तश्चेतना ने कभी मुझे धोखा नहीं दिया है।। __ अभी एक मास पूर्व (सं० २०३७ आषाढ़) महाप्रज्ञ का रहस्य अनावृत हो गया। आचार्यश्री द्वारा महाप्रज्ञ शब्द के चुनाव का अर्थ स्पष्ट हो गया। जैन परम्परा में प्रज्ञा की विलुप्त धारा को पुनः प्रतिष्ठित करने के लिए ही यह शब्द चुना गया। मुनि दुलहराजजी सूत्रकृतांग के टिप्पण सुना रहे थे। सूत्रकृतांग का छठा अध्ययन है 'वीरत्थुई। महावीर की स्तुति के प्रसंग में प्रज्ञ (६/४, १५), आशुप्रज्ञ (६/७, २५) और भूतिप्रज्ञ (६/१५, १८) ये दो-दो बार प्रयुक्त हुए हैं। इसके अतिरिक्त अन्य अध्ययनों में भी प्रज्ञ, महाप्रज्ञ और आशुप्रज्ञ-इनका अनेक बार प्रयोग हुआ है। आचारांग में भी प्रज्ञ, प्रज्ञान और प्रज्ञानवान का अनेक बार प्रयोग मिलता है। दूसरे अध्ययन के पचीसवें और छबीसवें-दोनों सूत्रों में पांचों इन्द्रियों के साथ प्रज्ञान शब्द का प्रयोग प्राप्त होता है। शेष स्थानों में प्रज्ञान का प्रयोग प्रज्ञा के अर्थ में हुआ है । मूल प्रश्न है -प्रज्ञा क्या है ? कुमार श्रमण केशी के उत्तर में गौतम ने कहा-धर्म का दर्शन और तत्त्व का निश्चय प्रज्ञा से होता है। इससे ज्ञात होता है कि प्रज्ञा इन्द्रियज्ञान से प्राप्त प्रत्ययों का विवेक करने वाली बुद्धि से परे का ज्ञान है। कुमार श्रमण केशी ने गौतम की प्रज्ञा को बार-बार साधुवाद दिया है। आचारचूला में बतलाया गया है कि समाधिस्थ मुनि की प्रज्ञा बढ़ती है। ध्यान और समाधि के साथ जिस प्रज्ञा का संबंध है वह इन्द्रियातीत है। वीरस्तुति में बतलाया गया है कि भगवान् महावीर प्रज्ञा के अक्षय सागर थे। १. प्रज्ञ-सूयगडो-१७।८; १।१४।१६; २।११६६; २१६१६ । महाप्रज्ञ-सूयगडो-१।११।१३, ३८ । ___ आशुप्रज्ञ-सूयगडो-१३।२; १।१४।४,२२; २।५।१; २।६।१८ । २. उत्तरज्झयणाणि-२३।२५। ३. वही, अध्ययन २३ । ४. आयारचूला, १६।५। ५. सूयगडो, १।६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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