Book Title: Manan aur Mulyankan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 97
________________ संस्कृत साहित्य : एक विहंगावलोकन ८७ उसके पल्लवनकारों में हरिभद्रसूरि एक प्रमुख व्यक्त्वि हैं । उन्होंने संस्कृत-साहित्य को कल्पना और अलंकार की कसौटी से कसे हुए कवित्व तथा तर्कवाद और निराकरण प्रधान शैली से परिपुष्ट तार्किकता से ऊपर उठाकर स्वतन्त्र चिन्तन और समन्वय की भूमिका पर प्रतिष्ठित किया। उनके 'लोकतत्त्व निर्णय' नामक ग्रंथ में स्वतन्त्र चिन्तन की ऐसी चिरंतन व्याख्या हुई है, जिसे कालातीत कहा जा सकता है। उन्होंने लिखा है 'मातृमोदकवद् बालाः, ये गृहन्त्यविचारितम्। ते पश्चात् परितप्यन्ते, सवर्णग्राहको यथा ।। -मां के द्वारा दिए हुए मोदक को बिना किसी विचार के ले लेने वाले बालक की भांति, बिना विचार किए दूसरे के विचार को स्वीकार करने वाला वैसे ही पश्चात्ताप करता है, जैसे बिना परीक्षा किए स्वर्ण को खरीदने वाला पछताता है। . सुनने के लिए कान हैं। विचारणा के लिए वाणी और बुद्धि है। फिर भी जो व्यक्ति श्रुत विषय पर चितन नहीं करता. वह कर्त्तव्य को कैसे प्राप्त हो सकता __ श्रोतव्ये च कृतौ कों, वाग्बुद्धिश्च विचारणे। यः श्रुतं न विचारत, स कार्य विन्दते कथम् ?॥' आगम-युग में श्रद्धा पर बहुत बल दिया। 'ईश्वरीय आदेशों और आप्त वचनों पर संदेह नहीं किया जा सकता'-इस मान्यता ने चिंतन की धारा को क्षीण बना दिया था। अधिकांश लोग किसी व्यक्ति की वाणी या ग्रंथ को बिना किसी चिंतन के स्वीकार कर लेते थे । इस परंपरा ने रूढ़िवाद की जड़ें बहुत सुदृढ़ बना दी थीं। उन्हें तोड़ना श्रम-साध्य था। वैसे वातावरण में दूसरों पर भरोसा कर चलने को बुरा कहना, कहने वाले के लिए अच्छा नहीं था। फिर भी कहा गया हठो हठे यद्वदभिप्लुतः स्यात्, नौ वि श्रद्धा च यथा समुद्र । तथा परप्रत्ययमात्रदक्षः, लोकः प्रमादाम्भसि बम्भ्रमीति ॥ —'जो व्यक्ति दूसरों की वाणी का अनुसरण करने में ही दक्ष है, वह प्रमाद के जल में वैसे ही भ्रमण करता है, जैसे जलकुंभी का पौधा दूसरे पौधे के पीछे-पीछे बहता है और जैसे नाव से बंधी हुई नाव उसके पीछे-पीछे चलती है।' ___ हरिभद्रसूरि को समन्वय का पुरोधा और उनकी रचनाओं को समन्वय की संहिता कहा जा सकता है। जब सम्प्रदायों में अपने-अपने इष्टदेव के नाम की महिमा गायी जा रही थी, उस समय यह स्वर कितना महत्त्वपूर्ण था १. लोकतत्त्वनिर्णय, १६ । २. वही, २०। ३. वही, १४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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