Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 79
________________ . विभूतिपाद ६६ और जब समाधि की अवस्था आ जाती है तब संयम पूरा बन जाता है। धारणा भी संयम है, ध्यान और समाधि भी संयम है। यह जो कहा गया है कि तीनों एक स्थान में होते हैं तब संयम होता है, इससे आप यह न माने कि तीनों एक साथ होते हैं। एक साथ हो ही नहीं सकते क्योंकि जब ध्यान है तो फिर धारणा का कोई अर्थ नहीं होता। जब समाधि है तब धारणा और ध्यान का कोई अर्थ नहीं होता। तीनों एक साथ नहीं हो सकते। इनमें उत्तरवर्तिता है। धारणा के बाद ध्यान होता है और ध्यान के बाद समाधि होती है। वे एक साथ हो नहीं सकते। किन्तु तीनों एक साथ होते हैं-यह कहने का अर्थ है कि जिस ध्येय पर पहले धारणा की, ध्यान किया और फिर समाधि की तो वह संयम पूरा हो गया। धारणा भी संयम है, ध्यान भी संयम है और समाधि भी संयम है। तीनों संयम. हैं, किन्तु संयम की पराकाष्ठा समाधि की अवस्था में आती है। वहां पूरा संयम सध जाता है। प्रस्तुत पाद के प्रथम चार सूत्रों में संयम की भूमिकाओं का निरूपण किया गया है और क्रमिक विकास की बात भी बतलायी गई है। पांचवां सूत्र है-'तज्जयात्प्रज्ञालोक :'-- इसमें संयम का फल बतलाया गया है। जैसे-जैसे संयम बढ़ता है वैसे-वैसे प्रज्ञा का आलोक बढ़ता जाता है। प्रज्ञा संयम से जागती है। बुद्धि का विकास पढ़ने से होता है, श्रुत के अध्ययन से होता है और प्रज्ञा का विकास ध्यान से होता है। दो भिन्न स्थितियां हैं। प्रज्ञा कोई बौद्धिक विकास नहीं है। यह स्व-संवेदन या स्वानुभव का विकास है। जब पूछा गया कि तत्त्व किससे ज्ञात होता है ? तो उत्तर मिला-'पण्णा समिक्खए धम्म।' प्रज्ञा के द्वारा तत्त्व का विनिश्चय प्राप्त होता है। पूछा कि आत्मा को कैसे जाना जा सकता है ? उत्तर मिला-प्रज्ञा के द्वारा आत्मा को जाना जा सकता है। यह प्रज्ञा बुद्धि से परे का तत्त्व है। इन्द्रिय, मन और बुद्धि-इनसे परे जो साक्षात्कार की चेतना जागती है, जिस चेतना में परोक्ष समाप्त हो जाता है और साक्षात्कार प्रारंभ होता है, उस चेतना का नाम है-प्रज्ञा। अतीन्द्रिय ज्ञानी के लिए 'प्रज्ञ' शब्द का प्रयोग होता है। कोशकार प्रज्ञा और बुद्धि एकार्थक मान लेते हैं। किन्तु कोश का वर्गीकरण बहुत स्थूल होता है। जितने पर्यायवाची नाम बतलाते हैं वे वस्तुतः पर्यायवाची होते ही नहीं हैं। समभिरूढ़ नय की दृष्टि से कोई भी शब्द पर्यायवाची होता ही नहीं। प्रत्येक शब्द का अपना अर्थ होता है। पर्यायवाची या एकार्थक का वर्गीकरण बहुत स्थूल है और केवल स्थूल बुद्धि वालों के लिए है। वास्तव में हर शब्द का अपना अर्थ होता है और अपना वाच्य होता है । प्रज्ञा का अपना एक विशिष्ट अर्थ है। इसका सम्बन्ध अध्यात्म से है। बुद्धि तक की हमारी भूमिका बाह्य जगत् की भूमिका है, स्थूल जगत् या भौतिक जगत् की भूमिका है, किन्तु जहां प्रज्ञा शब्द का प्रयोग होता है वहां से अध्यात्म-जगत् या अतीन्द्रिय-जगत् प्रारंभ होता है। यदि अतीन्द्रिय-जगत् का ज्ञान, सूक्ष्म-पदार्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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