Book Title: Manan aur Mulyankan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 86
________________ ७६ मनन और मूल्यांकन चलता रहता है। हम ज्ञान का अभ्यास करते हैं, ज्ञान का आवरण दूर होता है । जैसे ही अभ्यास बंद किया फिर आवरण आ जाता है । इसे व्याख्याकारों ने एक रूपक द्वारा समझाया है एक तालाब था । वह शेवाल से भरा पड़ा था। रात का समय । आकाश में चांद-तारे चमक रहे थे । हवा चली। शेवाल कुछ हटा। एक कछुए ने ऊपर देखा । चांद-तारों को देख वह मुग्ध हो गया । उसने सोचा, मैं अकेला ही आनन्द लूट रहा । अपने साथियों को बुलाकर दिखाऊं । उसने पानी में डुबकी लगाई । साथियों को ले आया । पर अब शेवाल पुनः छा गई थी । आकाश दीखना बंद हो गया । जब तक आदमी पुरुषार्थ करता है, उस शेवाल को हटाता रहता है तब तक तो कर्म का क्षयोपशम काम करता रहता है और जब उस पुरुषार्थ को छोड़ देता है । तो वह शेवाल पुनः छा जाता है, आकाश दीखना बंद हो जाता है । इसीलिए क्षयोपशम का अर्थ है - सतत अभ्यास, सतत पुरुषार्थ और सतत जागरूकता । यह क्षयोपशम का सिद्धान्त तब तक चलता रहता है जब तक क्षायिक की प्रक्रिया नहीं आ जाती। इन सूत्रों में इस क्षयोपशम की प्रक्रिया का बहुत सुंदर वर्णन किया गया है। सोलहवें सूत्र से ५५ वें सूत्र तक विभूतियों का वर्णन किया गया है। ये सारी विभूतियां हैं। किस साधना के द्वारा कौन-सी विभूति प्राप्त होती है, वह भी बहुत महत्त्वपूर्ण और जानने का विषय है। कभी उसकी चर्चा हो सकती है । जातिस्मृति, पर-चित्तज्ञान आदि-आदि जो ज्ञान की विभूतियां हैं वे किस प्रक्रिया से उपलब्ध होती हैं, इसको भी जानना जरूरी है। आज हमारे सामने जो समस्या है वह यह नहीं है कि प्राचीन ग्रंथों में मनोविज्ञान या परा - मनोविज्ञान के कितने तत्त्व मिलते हैं ? इस पर तो काफी लिखा गया है, लिखा जा रहा है। जैन साधना पद्धति और बौद्ध साधना पद्धति में इनका पूरा विवरण मिलता है । मूल समस्या यह है कि उनकी प्रक्रिया क्या है ? वे कैसे उपलब्ध होती हैं ? पातंजलि ने जैसे स्वयं निर्देश दिया है कि सिद्धियां, विभूतियां तपस्या के द्वारा भी, मंत्र के द्वारा भी, औषधि (वनस्पति) के द्वारा भी और योग-साधना के द्वारा भी प्राप्त की जा सकती हैं । इनमें जो वनस्पति के द्वारा होती हैं वे कम शक्तिशाली होती हैं । किंतु तप और साधना के द्वारा जो होती हैं वे बहुत शक्तिशाली होती हैं । सिद्धियों के बारे में यह भी स्पष्ट दृष्टि रही है कि समाधि के विघ्न व्युत्थान के लिए तो अच्छे हैं और समाधि के लिए विघ्न हैं । एक परिणाम का व्युत्थान होता है । इसका अर्थ यह हुआ कि औदयिकभाव के लिए तो अच्छी हैं किन्तु क्षायिकभाव के लिए इनका कोई उपयोग नहीं। सभी परम्पराओं में सिद्धियों के प्रयोग का निषेध भी रहा है । किन्तु एक बात इसमें समझ लेनी है कि अवधिज्ञान, मनः पर्यवज्ञान, केवलज्ञान की जो विभूतियां या सिद्धियां हैं. ये समाधि के लिए विघ्न नहीं हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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