Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 83
________________ विभूतिपाद ७३ आयुर्वेद में पांच या दस प्राण माने हैं और जैन आगमों में दस प्राण मान्य हैं। आंख बन्द कर लेना मात्र प्रत्याहार नहीं है । किन्तु आंख अपना काम करती है— इन्द्रिय प्राण के द्वारा । चक्षु इन्द्रिय प्राण प्राण का एक प्रकार है, प्राण की एक धारा है । उसके द्वारा आंख अपना काम करती है । साधना करने वाला व्यक्ति अपनी प्राण की साधना के द्वारा दूसरों को जो प्राण का प्रवाह दे रहा है उसको बिल्कुल समेट लेता है, समाहार कर लेता है। आंख खुली है पर अपना काम नहीं कर रही है । कान सुनता है तो कान का यह आकार नहीं सुनता। कान के साथ उस प्राण का - योग होता है, श्रोत्रेन्द्रिय प्राण का योग होता है तब यह कान सुनता है। बस, स्विच आफ कर दिया, प्राण को यहां से हटा लिया, कान पड़ा है, खुला है अंगुलि लगाने की कोई जरूरत नहीं, मुद्रा करने की कोई अपेक्षा नहीं किन्तु कितनी ही आवाज हो रही है, कान अपना काम नहीं कर रहा है । उपकरण इन्द्रिय के साथ जिस ऊर्जा का, जिस प्राणधारा का योग होता है, चैतन्य और प्राण का समन्वित योग होता है, चेतनायुक्त प्राणधारा का जो प्रवाह होता है, उस प्रवाह को वहां से हटा लेना यह श्रोत्रेन्द्रिय का प्रत्याहार होता है । प्रत्याहार की साधना बहुत महत्त्वपूर्ण साधना है और उसका अर्थ है कि प्राण के प्रवाह को वहां से समाहित कर लेना, हटा लेना और मूल प्राण के साथ उसको जोड़ देना । यह जब साधना होती है तो इन्द्रिय की पूरी प्रतिसंलीनता हो जाती है । इन्द्रियां अपने आप में लीन हो जाती हैं, अपना काम नहीं करती । कषार्य भी प्राण प्रवाह के द्वारा पैदा होता है । प्राण की धारा जुड़ती है तो क्रोध आता है, अभिमान आता है, सारे कषाय आते हैं । प्राण का कनेक्शन तोड़ दिया तो सारे कषाय बिल्कुल शांत हो जाते हैं । योग की प्रवृत्ति - मन, वचन और काया की प्रवृत्ति - भी प्राणधारा के द्वारा होती है । प्राणधारा को उस स्थान से हटा लेने का अर्थ होता है - प्रत्याहार । यह प्रत्याहार की प्रक्रिया आन्तरिक प्रक्रिया है । किन्तु वर्गीकरण करने वालों के सामने यही रहा कि इसको ध्यान के लिए योग्य माना जाए। यम, एक है - प्रत्याहार से इधर का जगत् और दूसरा है - प्रत्याहार से उधर - का जगत् । बीच का एक सेतु-बंध बन जाता है । प्रत्याहार से इधर का जगत् है, वह सारा का सारा बाह्य जगत् है यानि अभी तक भीतर में कोई प्रवेश नहीं है । नियम, आसन और प्राणायाम -- यह प्रत्याहार से इधर का जगत् है, जहां कोई भीतर का प्रवेश अभी नहीं हुआ । भीतर का कोई दरवाजा नहीं खुला । नियम लिया तो एक संकल्प कर लिया । नियम में अभी भी शारीरिक प्रक्रिया है और प्राणायाम श्वास की प्रक्रिया है दरवाजा नहीं खुला । इसलिए यह जगत् बाह्य जगत् हो गया । नियम से हो जाता है, प्रक्रिया चालू हो जाती है किन्तु प्राणायाम तक यह नहीं कह सकते कि कोई अन्तर्चेतना का द्वार खुला हो । जब प्रत्याहार में आते हैं संकल्प है । आसन । भीतर का कोई सांधना का प्रारंभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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