Book Title: Manan aur Mulyankan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 71
________________ योगदर्शन का हृदय ६१ और माया की वृत्ति जाग जाती है । कभी कपट की वृत्ति जागती है तो कभी वासना की वृत्ति तीव्र हो जाती है। एक के बाद एक की निरंतरता बनी रहती है । यह निरंतरता कभी नहीं टूटती । वृत्तियां ऐसा एक भी क्षण आने नहीं देतीं कि व्यक्ति समाधि में चला जाए। वे अपनी पकड़ को कभी शिथिल नहीं होने देतीं । इनका बहुत बड़ा सुरक्षा व्यूह है । समाधि के पास वैसा सुरक्षा व्यूह नहीं है । नींद भी एक वृत्ति है । उसमें अन्यान्य वृत्तियां उभरती रहती हैं। पतंजलि ने पांच वृत्तियों का उल्लेख किया है। उनमें नींद एक वृत्ति है । वह भी यदि अपना काम करे तो संभव है व्यक्ति सोते-सोते ही समाधि में चला जाए। वह हरदम पहरा देती रहती है । वह व्यक्ति को समाधि में नहीं जाने देती । यह चक्र चलता रहता है । वृत्तियों के निरोध से समाधि की प्राप्ति होती है । निरोध की शर्त कठोर है । जो सतत गतिमान प्रवाह है उसे रोकना या तोड़ना सरल नहीं है । किन्तु इसके सिवाय कोई विकल्प नहीं है जो समाधि के जगत् में प्रवेश करा सके । केवल यही एक विकल्प है - वृत्तियों का निरोध होगा तो योग होगा, समाधि होगी अन्यथा नहीं । वृत्तियां पांच हैं - प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । (पातं ०१-६) जैन - परम्परा में दस संज्ञाओं का उल्लेख है १. आहार संज्ञा ६. मान संज्ञा २. भय संज्ञा ३. मैथुन संज्ञा ४. प्ररिग्रह संज्ञा ५. क्रोध संज्ञा ७. माया संज्ञा ८. लोभ संज्ञा ६. ओघ संज्ञा १०. लोक संज्ञा । पतंजलि का 'वृत्ति' शब्द और जैन परंपरा का 'संज्ञा' शब्द - एकार्थक है । तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है । चित्त की विकसित या अविकसित अवस्था में भी ये दसों संज्ञाएं होती हैं । मन का विकास और चित्त का विकास केवल मनुष्य में होता है। पशु में मन होता है, पर उसका उतना विकास नहीं होता, जितना मनुष्य में होता है। पांच इन्द्रिय वालों से चार इन्द्रिय वालों में मन का विकास कम होता है, उससे कम तीन इन्द्रिय वालों में, उससे कम दो इन्द्रिय वालों में और सबसे कम एक इन्द्रिय वाले प्राणियों में होता है । एकेन्द्रिय प्राणियों में न मन का विकास है और न चित्त का विकास है । फिर भी उनमें वृत्तियां विद्यमान हैं । वे कभी अपना स्थान नहीं छोड़तीं । प्राणी का सारा जीवन वृत्ति के सहारे ही चलता है । वे प्राणी ज्यादा संवेदनशील होते हैं। वनस्पति के जीव जितने संवेदनशील हैं, मनुष्य उतना संवेदनशील नहीं है । जैसे-जैसे ज्ञान का विकास होता चला जाएगा, वैसे-वैसे संवेदन का धागा टूटता जाएगा । वनस्पति जगत् के प्राणी संवेदना के द्वारा जितने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140