Book Title: Manan aur Mulyankan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 72
________________ ६२ मनन और मूल्यांकन तथ्यों को पकड़ते हैं, उतने तथ्य आदमी नहीं पकड़ सकता। मनुष्य का विकास ज्ञान की दिशा में होने लगा, इसलिए उसकी संवेदना कम हो गई, गति धीमी हो गई। जो वृत्तियों की परिधि में जीता है, वह अधिक संवेदनशील होता है। भर्तृहरि ने एक सुन्दर श्लोक लिखा है 'आहारनिद्राभयमथुनं च, सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम् । तत्रापि धर्मो ह्यधिको विशेषो, धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥ श्लोक साधारण-सा है। न इसमें शब्दों का चाकचिक्य है और न अर्थ की गूढ़ता। साधक सीधी-सादी बात कहता है। उसे साधक बड़ी मानता है। बुद्धि के बल पर जीने वाला इन बातों को छोटी मानता है। उसे शब्दों का आडंबर चाहिए। किन्तु अनुभव के स्तर पर पहुंचा हुआ आदमी इस श्लोक में अभिव्यंजित सचाई पर मुग्ध हो जाएगा। जीवन की सारी सचाई श्लोक के दो चरणों में प्रकट कर दी। चार संज्ञाएं-आहार संज्ञा, भय संज्ञा, मैथुन-संज्ञा और परिग्रह-संज्ञासब में होती हैं, फिर चाहे वह पशु हो या मनुष्य । वृत्ति के स्तर पर जीने वाले सारे एक ही कोटि के होते हैं।' एकेन्द्रिय प्राणी भी वृत्ति के स्तर पर जीता है और मनुष्य भी वृत्ति के स्तर पर जीता है। एकेन्द्रिय प्राणी भी असमाधि का जीवन जीता है और मनुष्य भी असमाधि का जीवन जीता है। एकेन्द्रिय प्राणी स्त्यानद्धि निद्रा में होता है, मच्छित जीवन जीता है। मनुष्य की भी यही अवस्था है। दोनों में 'विशेष अन्तर नहीं है। मानसिक विकास की दृष्टि से भले ही दोनों में अन्तर हो परन्तु वृत्ति के स्तर पर दोनों में कोई अन्तर नहीं है। मनुष्य भी वैसा ही असमाधि और मर्छा का जीवन जी रहा है जैसा वनस्पति के प्राणी जी रहे हैं। एक महत्त्वपूर्ण अन्तर भी है दोनों में। मनुष्य वृत्ति-निरोध की अवस्था में जा सकता है, 'पशु नहीं जा सकता। मनुष्य की एक विशेषता है कि वह वृत्ति से हटकर जी सकता है। दूसरे प्राणियों में वह क्षमता नहीं होती। मनुष्य संज्ञातीत जीवन जी सकता है । आगमकार ने इसका वाचक शब्द 'नो-संज्ञोपयुक्त' दिया है। एक है"संज्ञोपयक्त' जीवन और दूसरा है-'नो-संज्ञोपयुक्त जीवन । जो वृत्ति का जीवन है वह संज्ञोपयुक्त जीवन है और जो समाधि का जीवन है, वह नो-संज्ञोपयुक्त जीवन है। इस अवस्था में संज्ञाएं विपाक में नहीं रहतीं या समाप्त हो जाती हैं। जहां संज्ञाएं समाप्त हो जाती हैं, वहां वीतरागता का पूरा विकास हो जाता है। जहां ये संज्ञाएं उपशान्त रहती हैं, वहां नो-संज्ञोपयुक्त जीवन का, वीतराग चेतना का या समाधि का प्रारम्भ होता है। एक है-समाधि का चरम-बिन्दु और एक है-समाधि का आदि-बिन्दु। जहां वृत्तियों का निरोध होता है, वहां विभाजन होता है। समाधि का बिन्दू विभाजन का बिन्दु है। यहां मनुष्य की दो श्रेणियां हो जाती हैं। एक श्रेणी होती है उन व्यक्तियों की जो वृत्ति का जीवन जीते हैं और दूसरी श्रेणी होती है उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140