Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 75
________________ योगदर्शन का हृदय ६५ की समाधि प्राप्त होती है और न निरोध की समाधि प्राप्त होती है। एकाग्रता की समाधि चित्त का परिकर्म हुए बिना भी प्राप्त हो सकती है, किन्तु निरोध की समाधि में चित्त की आत्यन्तिक निर्मलता अपेक्षित होती है। एक शिकारी अपने शिकार पर निशाना साधता है, यह भी एकाग्रता की समाधि है। किन्तु इसमें चित्त का परिकर्म नहीं है, राग-द्वेष की शून्यता नहीं है । इसलिए यह साधना की समाधि नहीं है, मूर्छा की समाधि है, नींद की समाधि है। निरोध की समाधि चैतन्य की समाधि है, जागृत समाधि है । यह समाधि उपलब्ध होती है स्वरूप की अवस्थिति में जब चित्त का पूर्ण परिकर्म हो जाता है। पतंजलि के योग-दर्शन' में एक पाद है-साधना-पाद । उसमें चित्त-परिकर्म के उपाय निर्दिष्ट हैं । चित्त समाधि के योग्य कैसे बन सकता है ? चित्त का परिकर्म कैसे हो सकता है ? 'परिकर्म' शब्द उस समय का बहुत ही महत्त्वपूर्ण शब्द है। तीनों परम्पराओं में यह शब्द प्रचलित रहा है। इसका अर्थ है-संवारना, मांजना, साफ करना। सोने को तपा-गलाकर उसका परिकर्म किया जाता है। उसकी भी एक निश्चित प्रक्रिया है। चित्त के परिकर्म की प्रक्रिया समाधि की प्रक्रिया है। जब व्यक्ति समाधि के जीवन में नहीं होता उस समय वृत्ति-सारूप्य होता है। हम बहुत बार देखते हैं कि आदमी प्रातःकाल बहुत स्नेहिल होता है। जैसे-जैसे दिन की गर्मी बढ़ती है, उसके दिमाग की भी गर्मी बढ़ती है और सांझ होते-होते वह झगड़ालू वृत्ति का हो जाता है। यह क्यों होता है ? प्रातः और सायं में इतना अन्तर क्यों आता है ? इसका मूल कारण है-वृत्तिसारूप्य । व्यक्ति कुछ भी नहीं है। वह कोरा यन्त्र है। वह केवल टेप-रिकार्डर है। वह वृत्तियों का दास है। वृत्तियां जैसा कराती हैं व्यक्ति वैसे ही आचरण करने लग जाता है। वह गाली देता है तो क्या उसकी वाणी का दोष है ? वह झूठ बोलता है तो क्या वह उसकी वाणी का दोष है ? नहीं, वाणी का कोई दोष नहीं है । गाली भी वृत्ति दिलवा रही है और झूठ भी वृत्ति का ही कार्य है। वाणी केवल माध्यम है। आदमी प्रेम भी वृत्ति के कारण करता है और द्वेष भी वृत्ति के कारण करता है। मन भी यन्त्र है, वाणी भी यन्त्र है और शरीर भी यन्त्र है। तीनों वृत्ति के अधीन हैं। जब तक वृत्तियां हैं तब तक ये तीनों यन्त्र स्वतन्त्र कार्य नहीं कर सकते । जैसा वृत्ति कराती है, वैसा कर देते हैं। वृत्ति जब जागती है तब व्यक्ति का आचरण वैसा ही होने लग जाता है । यही कारण है कि व्यक्ति को पहचान पाना सबसे कठिन काम है। जो व्यक्ति युवावस्था में विशुद्ध आचरण वाला होता है वह कभी-कभी वृद्धावस्था में पतित हो जाता है। जो आज बुरे आचरण कर रहा है वह कल साधु भी बन सकता है, बनता है। जो आज साधु है वह कल साधुता से गिर भी सकता है। हमारा जीवन वृत्तिसारूप्य का जीवन है। यह पूरा असमाधि का जीवन है। चित्तवृत्ति के जो दो परिणाम या दो अवस्थाएं है, योगदर्शन में उनका सुन्दर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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