Book Title: Manan aur Mulyankan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 70
________________ ६० मन और मूल्यांकन कभी ऊपर आता है और कभी दाल ऊपर आती है । यह क्रम चलता है । वैसे ही आत्मा ऊपर-नीचे घूमती रहती है। इसको यदि वर्तमान के शरीर - शास्त्र और योग- शास्त्र के सन्दर्भ में देखें तो बात और स्पष्ट हो जाती है। योग के आचार्यों ने बताया कि जब चित्त मूलाधार, स्वाधिष्ठान पर जाता है तब वहां की वृत्तियां ( काम, कोध, आवेश आदि) उभरती हैं । मणिपूर पर चित्त जाता है तो वहां की वृत्तियां उत्तेजित होती हैं। वर्तमान शरीर शास्त्र की दृष्टि से कहा जाता है कि जब चित्त एड्रिनल ग्रन्थि से संयुक्त होता है तब उत्तेजनाएं उभरती हैं। जब चित्त गोनाड्स पर जाता है तब काम की वृत्ति उभरती है । तीनों संदर्भों में -- जीव के स्पंदन या जो चलाचल चलता है उससे, योग की दृष्टि से चित्त का चक्रों के पास जाने से और शरीर शास्त्र की दृष्टि से चित्त का ग्लेण्ड्स के पास जाने से - वृत्तियों में तरंगे उठती हैं और उनमें उभार आता है । ये वृत्तियां निरन्तर चलती रहती हैं। इनका चक्र घूमता रहता है । वृत्ति एक ही प्रकार की नहीं रहती । जिस वृत्ति केन्द्र के साथ चित्त का संबंध जुड़ता है, वे वृत्तियां उभर आती हैं । वे मुख्य बन जाती हैं, शेष गौण हो जाती हैं 1 । कर्मशास्त्रीय दृष्टि से देखें तो विरोधी कर्म एक साथ विपाक में नहीं आते । सुखानुभूति और दुःखानुभूति — दोनों विरोधी वृत्तियां हैं, दोनों एक साथ नहीं होंगी । सुख की अनुभूति होगी तो उस समय दुःख की अनुभूति गौण हो जाएगी, अविपाक में चली जाएगी, अनुदय की अवस्था में चली जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं है कि जिस समय सुख का अनुभव है उस समय दुःख समाप्त हो गया। यदि समाप्त हो गया तो फिर आएगा कहां से ? समाप्त नहीं हुआ किन्तु अनुदय की अवस्था में चला गया । अविपाक अवस्था में चला गया। जब दुःख विपाक में आता है तब सुख अनुदय में चला जाता है और जब सुख विपाक में आता है तब दुःख अनुदय में चला जाता है । जिस समय क्रोध की वृत्ति तीव्र होती है तब न लोभ का विपाक होता है और न काम का । एक वृत्ति जब बहुत तीव्र होती है तब दूसरी सारी वृत्तियां दब जाती हैं । तब लगता है कि माना वह आदमी दूसरी वृत्तियों के लिए वीतराग बन गया हो। कोई वृत्ति नहीं सताती । जब अत्यन्त प्रिय व्यक्ति से भी कलह हो जाता है तब स्नेह और राग की वृत्तियां इतनी शांत-उपशांत हो जाती हैं, मानो कि व्यक्ति वीतरागता में जी रहा हो। वह वीतराग नहीं है किन्तु उस tat हुई राग की वृत्ति के कारण उसे वीतराग कहा जा सकता है । इसका तात्पर्य यह हुआ कि दो विरोधी शक्तियां - राग और द्वेष, प्रियता और अप्रियता — एक साथ सक्रिय नहीं होतीं, मुख्य नहीं होतीं। एक मुख्य होगी तो दूसरी गौण हो जाएगी। यह प्रकृति का नियम है कि अनेक को एक साथ मुख्यता नहीं दी जा सकती । एक वृत्ति मुख्य होगी तो शेष सारी वृत्तियां गौण हो जाएंगी। कोई-नकोई वृत्ति निरंतर बनी रहेगी। कभी क्रोध की वृत्ति जागती है तो कभी अभिमान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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