Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 58
________________ ४८ मनन और मूल्यांकन और अश्रेय के प्रति उत्तरदायी माना जा सकता है, अन्यथा नहीं । दूसरा दृष्टिकोण है— नियतिवाद । नियतिवादी मानते हैं कि सब कुछ नियत है, अनियत कुछ भी नहीं है। सारे भौतिक पदार्थ नियत हैं। एक परमाणु का भी क्रम नियत है, अनियत कुछ भी नहीं । इसीलिए समूचा भौतिकवादी विज्ञान एक निश्चित सिद्धान्त के आधार पर निष्कर्ष निकालता है, भौतिक पदार्थ की व्याख्या करता है, भविष्यवाणी करता है । भविष्यवाणी इसीलिए को जा सकती है कि भौतिक पदार्थ में अनियमितता नहीं है, अव्यवस्था नहीं है । नियतिवादी विचारधारा मनुष्य को भौतिक पदार्थ की भांति यांत्रिक मानती है । उसी के आधार पर मनुष्य की नियति को व्याख्यायित करती है । व्यावहारिक मनोविज्ञान मनुष्य को भौतिक पदार्थ की भांति परिस्थिति के अधीन यंत्रवत् मानती है, परिस्थितिवाद, वातावरणवाद और निमित्तवाद - ये सब मनुष्य को नियति मानकर तत्त्व की व्याख्या करते हैं । सूत्रकृतांग में नियतिवाद का उल्लेख है । यह आजीवक सम्प्रदाय का अभिमत है । इसके अनुसार मनुष्य एक नियत क्रम से चलता है । वह नियति के अधीन है । मनुष्य के संकल्प की कोई स्वतंत्रता नहीं है । नियतिवाद: और संकल्प की स्वतंत्रता - ये दोनों असमन्वित होकर सही नहीं है । इस प्रकार सूत्रकार ने विभिन्न दृष्टिकोणों की व्याख्या प्रस्तुत की है । आगे के श्लोकों में सूत्रकार ने यह प्रतिपादन किया है कि जब तक दुःख की उत्पत्ति को नहीं जाना जाता, तब तक दुःख-निरोध को भी नहीं जाना जा सकता । अमणुन्न सणुप्पायं अमनोज्ञ का उत्पाद ही दुःख है । अमनोज्ञ का अर्थ है - असंयम | असंयम से दुःख उत्पन्न होता है । इस दुःख की उत्पत्ति को जो नहीं जानता वह उसके निरोध को कैसे जान सकता है ? 1 आचार - शास्त्र के तीन मूल तत्त्व हैं - दुःख, दुःख का उत्पाद और दुःख का निरोध । दुःख को जानना है, दुःख के उत्पाद को जानना है और दुःख के निरोध को जानना है । सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि दुःख क्या है ? दूसरी बात है कि दुःख उत्पन्न कैसे होता है ? और तीसरी बात है कि दुःख का निरोध कैसे होता है ? सूत्रकार इस बात का समर्थन करते हैं कि व्यक्ति संकल्प में स्वतन्त्र है । यदि वह स्वतंत्र न हो तो दुःख को उत्पन्न नहीं कर सकता । यदि व्यक्ति कर्म करने में और संकल्प करने में स्वतंत्र न हो तो फिर उसने दुःख उत्पन्न किया, यह कभी प्रस्थापित नहीं किया जा सकता । दुःख की स्थापना में व्यक्ति की कर्म और संकल्प की स्वतंत्रता ही मूल तत्त्व है । किन्तु संकल्प की स्वतंत्रता एकान्तिक नहीं हो सकती । नियतिवाद का अस्वीकार एकान्तिक नहीं हो सकता । प्रस्तुत सूत्र में नियति और संकल्प की स्वतंत्रता — दोनों का समन्वय उपलब्ध होता है | यदि संकल्प ही सब कुछ हो तो कार्य-कारण के सिद्धान्त की सर्वथा अव-हेलना हो जाती है । कार्य-कारण के सिद्धान्त में संकल्प की स्वतंत्रता एकान्ततः 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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