Book Title: Manan aur Mulyankan Author(s): Mahapragna Acharya Publisher: Adarsh Sahitya SanghPage 40
________________ ३० मनन और मूल्यांकन लिए अहिंसा का कोई अवकाश ही नहीं है ? गृहस्थी में रहता हुआ गृहस्थ क्या सदा हिंसा ही करता रहेगा? क्या वह अहिंसा का कुछ भी आचरण नहीं कर सकता? महावीर का यह एकांगी दृष्टिकोण नहीं हो सकता। अनारम्भ का प्रतिपादन आचारांग में हुआ है, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि महावीर ने गृहस्थ के धर्म का प्रतिपादन नहीं किला। यद्यपि आचारांग में स्पष्टतः गृहस्थ-धर्म का प्रतिपादन नहीं है, इससे यह कैसे मान लिया जाए कि यह परम्परा उत्तर-कालीन है, बाद में विकसित हुई है। यदि यह निष्कर्ष निकाला जाए तो अहिंसा का रूप एकांगी हो जाएगा और यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि गृहस्थ के लिए अहिंसा का कोई विधान हो ही नहीं सकता। ___'अरली जैनिज्म' के लेखक दीक्षित ने आचारांग के आधार पर यह स्थापना की है—गृहस्थ का धर्म उत्तरकालीन परम्परा से प्राप्त है। आचारांग में गृहवास की निंदा-ही-निंदा की गई है। यदि ऐसा मान लिया जाए तो गृहस्थ के लिए अहिंसा की बात प्राप्त ही नहीं हो सकती और जो यह स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है वह भी नहीं निकाला जा सकेगा। एक अन्तर्विरोध भी आता है। एक ओर पूर्ण अनारंभ की बात है तो दूसरी ओर जीवन का व्यवहार है। अनारंभ की बात केवल मुनि के लिए ही है, गृहस्थ के लिए नहीं तो फिर विरोध की बात भी नहीं आ सकती। क्योंकि मुनि तो उस बात को स्वीकार करके ही चलता है। इन सारे तथ्यों के आधार पर, शस्त्र-परिज्ञा अध्ययन को हम इस संदर्भ में देखें कि अनारंभ अहिंसा का शुद्ध रूप है और वह साधना के केन्द्र में है। उसकी 'परिधि में जो सारे विकास हुए हैं, वे विकास अनारंभ की व्याख्या करने के लिए ही हुए हैं, उसकी व्याख्या से भिन्न नहीं हैं। वे अनारंभ की परिधि में ही हैं, उससे बाहर नहीं हैं। यदि इन तथ्यों को ठीक समझ लें तो उस प्रकार की कल्पना करने का कोई अवकाश ही नहीं आता। (आचारांग के आधार पर-चौथा प्रवचन-लाडनूं १६-१२-७७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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