Book Title: Manan aur Mulyankan
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 42
________________ ३२ मनन और मूल्यांकन है। उन जीवों को चाहे गाली देकर, ताड़ना-तर्जना देकर या उनके प्रति दुश्चिन्ता करके अशांति पैदा की जाए, वह अपरिनिर्वाण है, वह महान् भय है, वह महान् दुःख है । वह किसीको प्रिय नहीं है। णिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं (१-१२१)—पहले प्रत्येक प्राणी के परिनिर्वाण को देखो। इस बात की समीक्षा करो कि प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण को चाहता है, इसलिए परिनिर्वाण को समझो। अपरिनिर्वाण उत्पन्न मत करो। इस एक वाक्य में अहिंसा का पूरा सिद्धांत भित है। इसका पूरा विवरण यहां प्राप्त होता है। ____ एक प्रश्न है कि आचार के ग्रन्थों पर दृष्टिपात करने से ऐसा लगता है कि एक युग में जो कार्य प्रायश्चित्ताह माने गए वे दूसरे युग में अनुमत हो गए और उनके लिए प्रायश्चित्त आवश्यक नहीं रह गया। तो क्या एक युग में जो प्रवृत्ति हिंसात्मक मानी गई, वह दूसरे युग में अहिंसात्मक बन गई ? अहिंसा मूल आचार है। आचार का दूसरा अंग है---अपरिग्रह । आचारांग का दूसरा अध्ययन 'लोकविजय' इसी अममत्व और अपरिग्रह के सूत्र से प्रारंभ होता है। उसमें ममत्व के दोषों और अममत्व की साधना का दिग्दर्शन कराया गया है। आचार की व्यवस्थाएं उत्तरकाल में व्यवस्थित और विकसित होती गईं। वे सारी केवल अहिंसा के आधार पर नहीं किन्तु अहिंसा और अपरिग्रह तथा उनके अन्तर्गभिंत अस्तेय आदि के आधार पर हुई हैं। इन सारे अध्यात्म के नियमों के आधार पर आचार की व्यवस्था का विकास हुआ है । अब कसौटी यह करनी होगी कि उत्तरकाल में जो नियम बनते गए वे नियम क्या महावीर की भावना और महावीर के सिद्धांत हैं ? उनके अनुरूप हैं या उनका अतिक्रमण करने वाले हैं ? अहिंसा की दृष्टि से भी कसौटी आचारांग ही होगा और अपरिग्रह की दृष्टि से भी कसौटी आचारांग ही होगा। साथ-साथ हम सूत्रकृतांग को भी कसौटी के रूप में मान्य कर सकते हैं। इन दो आगामों के आधार पर ही यह निर्णय करना होगा कि ये नियम मूल भावना से संबंधित हैं और ये नियम मूल भावना से दूर हैं । यह पूरा एक ऐतिहासिक विश्लेषण होगा। हम इस संदर्भ में एक उदाहरण लें पुस्तक रखने का । एक समय तक यह नियम था कि मुनि पुस्तक नहीं रख सकता। उसका हेतु यही दिया गया कि पुस्तक रखने से जीव-विराधना होती है और यह परिग्रह भी है। हिंसा और परिग्रहये दोनों दृष्टियां थीं इसके निषेध के पीछे। आचारांग सूत्र में जो उपकरण बतलाए हैं- वस्त्र, पात्र, कंवल आदि, उनमें पुस्तक का उल्लेख नहीं है और वस्त्रों की भी एक सीमित स्थापना है। मुनि सर्दी में कुछ वस्त्र रखे और हेमन्त के अतिक्रान्त होने पर उनका परिष्ठापन कर दे। एक सीमित व्यवस्था थी। पुस्तकें न रखने की व्यवस्था चल रही थी हिंसा और परिग्रह के आधार पर । फिर यह प्रतीत हआ कि जो ज्ञान कंठगत है वह धीरे-धीरे विस्मत हो रहा है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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