Book Title: Mahavira ka Arthashastra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 74
________________ महावार का अर्थशास्त्र अलग कर दिया गया। प्रारम्भ से ही यह संस्कार आ जाते हैं कि यह मेरा नहीं है। जब तक यह मेरापन रहेगा, व्यक्ति न्याय नहीं कर सकेगा, समाज के प्रति ईमानदार नहीं हो सकेगा। धन मेरी सम्पत्ति नहीं है, सब समाज का है, यह एक व्यापक दर्शन दिया था साम्यवाद ने। यदि ऐसा होता महावीर का दर्शन आत्मा तक सीमित रहा, अपने भीतर तक सीमित रहा और समाजवाद का दर्शन केवल बाहर तक सीमित रहा, सामाजिक परिवेश तक सीमित रहा। दोनों मिल नहीं पाए इसलिए बात पूरी नहीं बनी। अगर दोनों मिल जाते, भीतर का भी परिवर्तन होता-शरीर मेरा नहीं और बाहर का भी परिवर्तन होता, व्यवस्थागत परिवर्तन भी घटित होता-धन, सम्पदा आदि मेरे नहीं हैं तो शायद एक नया ही विश्व बनता। किन्तु ऐसा हआ नहीं। दोनों को मिलाया नहीं गया। जहां समाजवाद ने 'यह मेरा नहीं है, इस सिद्धान्त को दण्डशक्ति के बल पर थोपा, वहीं महावीर का सिद्धान्त हृदय-परिवर्तन के आधार पर स्वीकृत हुआ, किन्तु वह एक धार्मिक धरातल पर स्वीकृत हुआ, सामाजिक व्यवस्था के धरातल पर स्वीकृत नहीं हुआ। अगर ये दोनों परिवर्तन संयुक्त रूप से लागू होते तो एक नई विश्व व्यवस्था का प्रादुर्भाव होता। ___ गरीबी और बेरोजगारी मिटने का कारण मुख्य रूप से यही है---इसके साथ केवल समाज-व्यवस्था है, राज्य-व्यवस्था है, दण्डशक्ति है, किन्तु आन्तरिक परिवर्तन नहीं है। यदि आंतरिक परिवर्तन भी होता तो शायद गरीबी की समस्या सुलझ जाती । महावीर ने संवेदनशीलता और करुणा को बहुत महत्त्व दिया था। सामाजिक प्राणी वह होता है, जो संवेदनशील होता है । जिसमें अपनी अनुभूति और दूसरों की अनुभूति का जोड़ होता है, वह दूसरों को भी अपने समान समझता है। अगर संवेदनशीलता का यह सूत्र कामयाब होता तो इतनी विशाल धनराशि संहारक अस्त्र-शस्त्र में न लगकर मानव की भलाई में लगती। यू० एन० डी० पी० की रिपोर्ट वर्तमान की स्थिति देखें । यू० एन० डी० पी० की रिपोर्ट के अनुसार विश्व में पांच अरब तीस करोड़ आदमी हैं। उनमें एक अरब तीस करोड़ धनी हैं या अमीर देशों में हैं और चार अरब आदमी निर्धन या विकासशील देशों में हैं। यह एक बहुत बड़ा अन्तर है। इसका अर्थ है-सतत्तर प्रतिशत लोग गरीब हैं। विश्व की आय का उन्नीस प्रतिशत मात्र निर्धनों को मिलता है । इक्यासी प्रतिशत अमीरों की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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