Book Title: Mahavira ka Arthashastra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 123
________________ जिज्ञासा : समाधान १२१ जो शोषण की बात जड़ गयी है, वह चलती रहे तो ब्याज की वर्जनीयता को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। हमने देखा है, जहां इतनी विवशता और वर्जना हो जाती है कि बहुत ही गहरा शोषण होता है । बाध्य होकर उन्हें सारा चुकाना भी पड़ता है। यह स्थिति बिल्कुल अवांछनीय है। हमें दोनों पहलुओं से विचार कर इस पर चिन्तन प्रस्तुत करना चाहिए और वर्तमान समस्या के संदर्भ में इस प्रश्न को उजागर करना चाहिए कि ब्याज के साथ जो वैयक्तिक स्वार्थ और शोषण जुड़ा है, वह ब्याज से निकल जाए। अगर यह निकल जाता है, केवल सहयोग जैसा सूत्र-संबंध रहता है, जैसा कि आज बैंकिंग में हो रहा है तो मुझे लगता है कि इसे सर्वथा त्याज्य मानने जैसी बात भी व्यवहार की भूमिका पर नहीं आती । शायद इसीलिए भगवान् महावीर ने जहां अप्रामाणिकता के सारे स्रोतों का निषेध किया, वहां ब्याज का कोई उल्लेख नहीं किया । ऐसा लगता है कि उस समय यह पहलू इतना स्पष्ट नहीं था और केवल सहयोग के आधार पर ही सारा काम चलता था। मध्यकाल की परिस्थिति ने इस प्रश्न को यह रूप दिया और उस दृष्टि से मोहम्मद साहब के कार्य को बहुत औचित्यपूर्ण माना जा सकता है। उन्होंने एक शोषणपूर्ण कार्य के प्रति चेतना जगायी। जैन समाज के लिए पूर्वकालीन प्रश्न है, मध्यकालीन प्रश्न है और आज का प्रश्न है। आज के युग के संदर्भ में जैन समाज के सामने प्रश्न यही है कि उसकी उपयोगिता को समाप्त करने की दिशा में नहीं किन्तु उसके साथ जो शोषण जुड़ गया है, उस शोषण को समाप्त करने की दिशा में कोई कदम उठे। प्रश्न-अहिंसा से अपरिग्रह फलित होता है या अपरिग्रह से अहिंसा फलित होती है? उत्तर-अहिंसा परमो धर्म: यह घोष धर्म का महान् घोष माना जाता है। इसमें कोई सचाई नहीं है, यह मैं कैसे कहूं, पर मैं इस सचाई को उलट कर देखता हूं । 'अपरिग्रहः परमो धर्म:' यह पहली सचाई है और अहिंसा परमो धर्म: यह इसके बाद होने वाली सचाई है। यह सर्वथा मनोवैज्ञानिक सत्य है कि मनुष्य हिंसा के लिए परिग्रह का संचय नहीं करता, किन्तु परिग्रह की सुरक्षा के लिए हिंसा करता है। जैसे-जैसे अपरिग्रह का विकास होता है, वैसे-वैसे अहिंसा का विकास होता है। परिग्रह का केन्द्र-बिन्दु मनुष्य का अपना शरीर होता है। वहीं से परिग्रह की चेतना फैलती है। धार्मिक व्यक्ति धर्म की साधना को कायोत्सर्ग या देहाध्यासमुक्ति से प्रारम्भ करता है। शरीर का ममत्व जैसे-जैसे कम होता है, वैसे-वैसे परिग्रह की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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