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महावीर का अर्थशास्त्र
हराम
प्रश्न- मांसाहार का निषेध न करने वाले मोहम्मद साहब ब्याज को बताते हैं और अहिंसा में विश्वास करने वाले जैन लोग ब्याज का धंधा करते हैं। ऐसा क्यों ?
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उत्तर - ब्याज के विषय में जैन साहित्य में दोनों प्रकार की बातें मिलती हैं । जैन श्रावक ब्याज का व्यवसाय करते थे, ऐसा भी मिलता है और ब्याज को महाहिंसा मानने वाले व्यक्ति भी मिलते हैं । आचार्य जिनसेन ने ब्याज को महाहिंसा का आरम्भ बतलाया है और उसको श्रावक के लिए सर्वथा त्याज्य बतलाया है। दोनों प्रकार की बातें मिलती हैं । ब्याज एक उलझा हुआ प्रश्न है । इसके दो पहलू हैं—एक सहयोग का पहलू है, दूसरा शोषण का पहलू है । जैसे असमर्थ लोगों को सम्पत्ति न मिले तो बहुत बड़ी कठिनाई होती है। एक उपाय था कि असमर्थ लोगों को सम्पत्ति उपलब्ध करायी जाए और बदले में थोड़ा-बहुत ले लिया जाए। इस प्रेरणा से लोग दूसरों को संपत्ति देते और असमर्थ लोग अपना काम चलाते । यही प्रारम्भिक प्रेरणा ब्याज की रही होगी । यह सहयोग का पहलू है । उसे अस्वीकार नहीं किया
सकता । किन्तु प्रवृत्ति का जब विकास होता है, तब प्रारम्भिक प्रेरणा बदल जाती है और नयी-नयी प्रेरणा जाग जाती है । सहयोग की प्रेरणा समाप्त हो गयी और स्वार्थ की प्रेरणा बलवान् बन गयी । ब्याज देते-देते इतना शोषण शुरू हो गया कि उस बेचारे असमर्थ की असमर्थता का दुरुपयोग होने लग गया । विवशता का महान् 'दुरुपयोग हुआ। इस दृष्टि से ब्याज निन्दनीय बन गया ।
मोहम्मद साहब ने ब्याज का निषेध किया, उस भूमिका में उन्होंने बिल्कुल ठीक किया। क्योंकि उस काल में, मध्य युग में, व्यापार सहयोग की प्रेरणा को भुला चुका था । ब्याज का सारा धंधा शोषण पर प्रतिष्ठित हो गया था । उस स्थिति को उन्होंने देखा और उसका निषेध किया। आज भी बैंकिंग का धंधा चलता है, वह पूरा व्यवसाय एक ब्याज का ही धंधा है । वह सामुदायिक है, इसलिए शोषण वाली बात नहीं है । परिष्कृत रूप है । इसलिए उस ओर किसी का ध्यान नहीं जाता । जो लोग ब्याज का निषेध करने वाले हैं, वे भी उसका उपयोग करते हैं।
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इन दोनों दृष्टियों से जब मैं सोचता हूं तो मुझे लगता है कि ब्याज सर्वथा परिहार्य ही है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता और सर्वथा वांछनीय है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । यदि पद्धति का परिष्कार हो, सहयोग की प्रेरणा को पुनः कोई जगा सके तो इसकी उपयोगिता को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता। इसके साथ में
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