Book Title: Mahavira ka Arthashastra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 148
________________ १४६ २. व्रत-दीक्षा श्रावक की पहली भूमिका है सम्यक्त्व दीक्षा। सम्यक्त्व की पुष्टि के बाद श्रावक की दूसरी भूमिका-व्रत दीक्षा स्वीकार की जाती है। व्रत-दीक्षा का अर्थ है-संयम की ओर प्रस्थान । एक गृहस्थ श्रावक पूरी तरह से संयमी नहीं हो सकता पर वह असंयम की सीमा कर सकता है। इसी दृष्टि से भगवान महावीर ने उसके लिए बारह व्रत रूप संयम धर्म का निरूपण किया। अणुव्रत, गुणव्रत और शिक्षाव्रत रूप बाहर व्रत एवं तेरहवां मारणान्तिक संलेखना-यही व्रत-दीक्षा है । उसका स्वरूप इस प्रकार है१. अहिंसा-अणुव्रत मैं स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान करता हूं/करती हूं• मैं आजीवन निरपराध त्रस प्राणी की संकल्पपूर्वक हत्या न स्वयं करूंगा, न दूसरों से कराऊंगा, मन से, वचन से काया से। मैं विशेष रूप से मनुष्य को बलात् अनुशासित करने, आक्रमण करने, उसे पराधीन बनाने, अस्पृश्य मानने, शोषित और विस्थापित करने का परित्याग करता हूँ। मैं इस अहिंसा अणुव्रत की सुरक्षा के लिए वध, बन्धन, अंग-भंग, अतिभार-आरोपण, खाद्य-पेय-विच्छेद और आगजनी जैसे क्रूर कर्मों से बचता रहूंगा। - - १. हिंसा दो प्रकार की होती है—(१) आरम्भजा (२) संकल्पजा । अहिंसा अणुव्रत में केवल संकल्पजा हिंसा का त्याग किया जाता है । इसलिए यह स्थूल प्राणातिपात का प्रत्याख्यान है। २. क्रूरतापूर्ण पीटना। ३. क्रूरतापूर्ण बांधना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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