Book Title: Mahavira ka Arthashastra
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh

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Page 120
________________ ११८ महावीर का अर्थशास्त्र समन्वय होता है तो समस्या का समाधान हो सकता है अन्यथा यह प्रश्न बना हा रहेगा। प्रश्न-परिग्रह पर सबसे अधिक बल देने वाले जैन लोग धनाढ्य कहे जाते हैं। अपरिग्रह में से संग्रह का धर्म कैसे प्राप्त हो जाता है? उत्तर-प्रकाश में से अंधकार कैसे निकलता है, यह प्रश्न जब सामने आता है तो फिर सोचने के लिए कुछ शेष नहीं रह जाता। प्रकाश और अंधकार में कोई सम्बन्ध ही नहीं है। किन्तु कभी-कभी भ्रान्ति हो जाती है और भ्रान्तिवश यह प्रश्न भी पूछ लिया जाता है। अपरिग्रह में से परिग्रह कभी नहीं निकलता। जैन धर्म अपरिग्रह-प्रधान भी है, अहिंसा-प्रधान भी है, अनेकान्त-प्रधान भी है, सब कुछ है, वह तो सिद्धान्त है। अनेकान्त एक सिद्धान्त है । अपरिग्रह एक सिद्धान्त है। अहिंसा एक सिद्धान्त है। सिद्धान्त होना एक बात है, उसका पालन होना दूसरी बात है। सिद्धान्त अपनी उच्च भूमिका में प्रतिष्ठित होता है । उस तक पहुंचने के लिए कितनी लम्बी यात्रा करनी होती है । यह भी हम जानते हैं । एक व्यक्ति अभी चला। चल सकता है, पहुंच सकता है। इसी क्षण चला और इसी क्षण वह मंजिल तक पहुंच जाएगा, यह मान लेना एक बहुत बड़ी भ्रान्ति है । आज कोई धर्म का आचरण शुरू करता है, जैन बनता है और जैन बनते ही वह अपरिग्रह तक पहुंच जाएगा, यह तो बहुत आश्चर्य की बात है। अगर ऐसा हो, चुटकी में ही सारा सध जाए, जैन बनते ही अपरिग्रही बन जाए, तब तो धर्म की यात्रा इतनी छोटी है, साधना की यात्रा इतनी छोटी है कि जब व्यक्ति चाहे, तब साधना का सपना देखे और सिद्धि तक पहुंच जाए । कुछ करने की जरूरत ही नहीं। मुझे आश्चर्य है कि यह भ्रम से पलता है और कैसे चलता है? जैन समाज एक सिद्धान्त को मानकर चलता है कि अपरिग्रह उनका एक आदर्श है और लक्ष्य है। यहां तक उन्हें पहुंचना है। एक मुनि अपरिग्रही होता है, सब कुछ छोड़ देता है । किन्तु समाज के लिए तो अपरिग्रह एक सिद्धान्त है, उसके लिए कोई मंजिल नहीं है। समाज अपरिग्रह के आदर्श को सामने रखकर इच्छा-परिमाण का अणुव्रत स्वीकार करता है। वह इच्छा पर थोड़ा-थोड़ा नियमन शुरू करता है। जो मुक्त इच्छा है, उसे कम किया जाए और. . . कम किया जाए . . . और कम किया जाए तो वह इच्छा-परिमाण की दिशा में प्रस्थान करता है। उस दिशा में गति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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