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जज्ञासा: समाधान
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हम विसर्जन को सहयोग के रूप में लें। अर्जन हो, फिर उसी के अनुपात में वेसर्जन हो।
प्रश्न-आर्थिक विकास की योजना के अभाव में क्या कोई नैतिक आन्दोलन हमारे देश में सफल हो सकता है?
उत्तर—यद्यपि नैतिकता शुद्ध आध्यात्मिक प्रश्न है फिर भी इसे सामाजिक परिस्थितियों, आर्थिक व्यवस्थाओं से कभी अलग नहीं किया जा सकता। जहां आर्थिक विकास होता है, वहां अनैतिकता नहीं होती, ऐसा नहीं है, फिर भी आर्थिक अभाव की स्थिति में अनैतिकता पनपने का अधिक अवकाश रहता है, अधिक संभावनाएं रहती हैं। गरीब आदमी अधिक अनैतिक हो सकता है। हम मूल कारण को बदलना चाहते हैं, उसके साथ-साथ निमित्तों को बदलने की बात को गौण नहीं कर सकते । दोनों बातें साथ चलें । आर्थिक व्यवस्था सुधरे और साथ-साथ नैतिक विकास हो तो दोनों में बहुत अच्छा संतुलन बन सकता है और स्थिति ठीक हो सकती है। इसलिए यह अपेक्षा है कि राजतंत्र और धर्म-तंत्र दोनों में योग होना चाहिए, दोनों में समन्वय होना चाहिए। आज कठिनाई यही है कि दोनों में समन्वय नहीं है। राजतन्त्र को क्षमता प्राप्त है आर्थिक व्यवस्था को सुधारने की, किन्तु वह आर्थिक व्यवस्था सुधारने पर भी नैतिकता का विकास कर सके, ऐसी क्षमता उसके पास नहीं है। उस तंत्र में यह अर्हता भी नहीं है कि उसके द्वारा नैतिकता का विकास किया जा सके । धर्म-तंत्र के पास नैतिकता के विकास की क्षमता है, किन्तु उसके पास आर्थिक व्यवस्था को सुधारने की शक्ति नहीं है। इसलिए दोनों में अधूरापन है। जो राजतंत्र व्यवस्था को बदल सकता है, उसके पास दण्ड की शक्ति है । जो हृदय को बदल सकता है, आत्मानुशासन विकसित कर सकता है, उसके पास दण्ड की शक्ति नहीं है। इसलिए नैतिकता का काम सर्वमान्य हो सके, यह नहीं कहा जा सकता और दण्डशक्ति का काम बाध्यता से मान्य होने पर भी वह हृदय को बदल सके, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता । मुझे लगता है कि इस समस्या का सरल समाधान यही हो सकता है कि राज्य-शासन और धर्म-शासन—दोनों में समन्वय साधा जाए । समन्वय की अपेक्षा दोनों अनुभव कर सकें तो एक ओर आर्थिक व्यवस्था के सुधार की प्रक्रिया चले और दूसरी ओर आर्थिक विकास के साथ-साथ आने वाली जो विकृतियां हैं, अर्थ के अभाव में आने वाली जो विकृतियां हैं, उन विकृतियों की ओर जनता का ध्यान बराबर आकर्षित किया जाता रहे। अगर ऐसा
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