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आर्थिक प्रगति का दृष्टिकोण
मनुष्य सामाजिक प्राणी है और सामाजिक जीवन का मुख्य आधार अर्थ है । इस दृष्टिकोण से आर्थिक प्रगति बहुत आवश्यक है । आवश्यकताओं के सीमित होने पर आर्थिक प्रगति को प्रोत्साहन नहीं मिलता। इसलिए आर्थिक विकास की दृष्टि से आवश्यकताओं का विस्तार जरूरी है । इसी वस्तु सत्य को ध्यान में रखकर एक प्राचीन अर्थशास्त्री ने कहा था- 'असंतुष्ट संन्यासी नष्ट हो जाता है और संतुष्ट राजा नष्ट होता है ।' संन्यासी के लिए आवश्यकताओं को कम करना गुण है और उनका विस्तार करना दोष है । सामाजिक व्यक्ति के लिए आवश्यकताओं को कम करना दोष है और उनका विस्तार करना गुण है । मानवीय एवं आध्यात्मिक दृष्टिकोण
महावीर का अर्थशास्त्र
मनुष्य सामाजिक प्राणी है— इस वास्तविकता के संदर्भ में अर्थशास्त्र का आवश्यकताओं को असीमित करने का दृष्टिकोण गलत नहीं है। किन्तु मनुष्य क्या केवल सामाजिक प्राणी ही है ? क्या वह व्यक्ति नहीं है ? क्या उसमें सुख-दुःख का संवेदन नहीं है? क्या असीमित आवश्यकता का दबाव उसमें शारीरिक और मानसिक तनाव पैदा नहीं करता ? क्या आवश्यकता के विस्तार के पीछे खड़ा हुआ इच्छा का दैत्य शारीरिक ग्रन्थियों के स्राव को अस्त-व्यस्त और मानसिक विक्षोभ उत्पन्न नहीं कर देता ? इन समस्याओं की ओर ध्यान न देकर ही हम आवश्यकताओं के विस्तार का ऐकान्तिक समर्थन कर सकते हैं किन्तु जब मनुष्य को मानवीय पहलू से देखते हैं तब हम इच्छाओं की असीमितता का समर्थन नहीं कर सकते । इस मानवीय और आध्यात्मिक दृष्टिकोण से इच्छाओं को सीमित करना जरूरी है । मध्यवर्ती सिद्धान्त
अर्थशास्त्रीय और धार्मिक--- ये दोनों दृष्टिकोण अपने-अपने विषयक्षेत्र की दृष्टि में ही सत्य हैं । धर्मशास्त्र कहता है- 'आवश्यकता को कम करो।' तब हमें इस सत्य की ओर से आंखें नहीं मूंद लेनी चाहिए कि यह प्रतिपादन मानसिक अशांति की समस्या को सामने रखकर किया गया है । अर्थशास्त्र कहता है-'आवश्यकताओं का विस्तार करो ।' तब हमें इस वास्तविकता से आंखें नहीं मूंद लेनी चाहिए कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन मनुष्य की सुख-सुविधा के विकास को ध्यान में रखकर किया गया है । महावीर ने सामाजिक व्यक्ति के लिए अपरिग्रह की बात नहीं कही । वह मुनि के लिए संभव है । सामाजिक प्राणी के लिए उन्होंने इच्छा - परिमाण के
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