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नहा है । यह उन लोगों के लिए अर्थवान् है, जो कर्मणा धार्मिक होते हैं । ऐसे धार्मिक साधु संन्यासियों जितने विरल नहीं फिर भी जनसंख्या की अपेक्षा विरल ही होते हैं। इसलिए उनके आधार पर न तो आर्थिक मान्यताएं स्थापित होती हैं और न वे आर्थिक प्रगति में अवरोध बनते हैं । अधिकांश धार्मिक जन्मना धर्म के अनुयायी होते हैं। वे आवश्यकताओं की कमी, अर्थ-संग्रह की कमी, विलासिता के संयम और नैतिक नियमों में विश्वास नहीं करते। उनका धर्म नैतिकता - शून्य धर्म होता है । वे धार्मिक होने के साथ-साथ नैतिक होना आवश्यक नहीं मानते । वे धर्म के प्रति रुचि प्रदर्शित करते हैं, पर उनका आचारण नहीं करते। ऐसे धार्मिकों का धर्म आर्थिक प्रगति को प्रभावित नहीं करता ।
आवश्यकता - वृद्धि का समर्थन
अर्थशास्त्र में आर्थिक प्रगति के लिए आवश्यकता बढ़ाने का सिद्धान्त है । कुछ • अर्थशास्त्री इसका मुक्त समर्थन करते हैं तो कुछ अर्थशास्त्री इसके मुक्त समर्थन के पक्ष में नहीं है। आवश्यकताओं को बढ़ाने के पक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते
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महावीर का अर्थशास्त्र
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आवश्यकताओं की वृद्धि से मनुष्य को अधिकतम सुख या संतोष प्राप्त होता है ।
आवश्यकताओं की वृद्धि सभ्यता के विकास और जीवन स्तर की उन्नति में सहायक होती है ।
आवश्यकताओं की वृद्धि से, धन से उत्पादन में वृद्धि होती है 1 आवश्यकताओं की वृद्धि से राज्य की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है फलत: वह राज्य सैनिक दृष्टिकोण से सशक्त और अपनी रक्षा में आत्मनिर्भर हो जाता है ।
विपक्ष में तर्क
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आवश्यकता को बढ़ाने के विपक्ष में निम्न तर्क प्रस्तुत किए जाते हैंआवश्यकताओं की वृद्धि से मनुष्य दुःख-क्लेश का अनुभव करता है आवश्यकताओं की वृद्धि और फिर उनकी संतुष्टि के लिए निरंतर प्रयत्न मनुष्य को भौतिकवादी बनाता है । आवश्यकताओं की वृद्धि से समाज में वर्ग संघर्ष (Class struggle) हो जाता है ।
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